हमारी सीरीज दास्‍तान कहानी है उनकी जिन्होंने गुमनामी के अंधेरों से बाहर निकलकर रियो ओलंपिक का सफर तय किया है। अनजानी जगहों से निकले ये खिलाड़ी ओलंपिक में भारत की आस हैं। ये जिंदगी की तमाम दुश्वारियों को पीछे छोड़कर नई इबारत लिखने को बेताब हैं। इस बार यह दास्तान है भारतीय हॉकी गोलकीपर पीआर श्रीजेश की।

उसे खेलना था पर क्या
केरल के एर्णाकुलम जिले के किझक्कम्बालम गांव में किसान परिवार में जन्मे पीआर श्रीजेश की परेशानी अजीब थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उनका पसंदीदा खेल कौन सा है। उन्हें दौड़ लगाने में मजा आया तो स्प्रिंटर बनने का मन बना लिया। फिर उसमें मन नहीं लगा तो ऊंची कूद की प्रैक्टिस शुरू कर दी। फिर लगा कि नहीं अब वॉलीबाल खेलना चाहिए। आखिर इस परेशानी का हल उन्हें 12 साल की उम्र में मिला। जब तिरुवनंतपुरम के जीवी राजा स्पोर्ट्स स्कूल में दाखिला मिला। कोचिंग स्टाफ ने उन्हें हॉकी में गोलकीपर बनने की सलाह दी। उन्होंने सलाह मान ली। उनकी आगे की दास्तान भी कम रोचक नहीं है।
कुछ ऐसा था सफर
2004 में उन्हें जूनियर नेशनल टीम में जगह मिली। दो साल बाद ही कोलंबो में साउथ एशियन गेम्स में वह सीनियर टीम का हिस्सा बन गए। बहरहाल टीम में अभी उन्हें अपनी जगह पक्की करनी थी। 2008 में इंडिया ने हॉकी का जूनियर विश्व कप जीता। पीआर श्रीजेश को अपने बेहतरीन प्रदर्शन का इनाम मिला। उन्हें टूर्नामेंट का बेस्ट गोलकीपर चुना गया। इतिहास में स्नातक पीआर श्रीजेश आज भले ही इतिहास रच रहे हैं लेकिन सीनियर टीम में नियमित जगह बनाने के लिए उनका संघर्ष लंबा चला। यह 2011 के बाद ही हो सका। दो चीजों ने उनकी मदद की। जो भी मौका मिला अपने आपको साबित किया और प्रदर्शन में निरंतरता बरकरार रखी।

पहला खास पल
उनकी जिंदगी का सबसे अहम मोड़ 2014 में आया। इंचियोन एशियाड के हॉकी फाइनल में भारत-पाकिस्तान आमने-सामने थे। समय समाप्त होने तक कांटे का मुकाबला 1-1 से बराबर था। अब फैसला पेनाल्टी शूट आउट से होना था। इंडिया को गोल्ड मेडल और रियो ओलंपिक का सीधा टिकट दिलाने का दारोमदार वाइस कैप्टन पीआर श्रीजेश के कंधों पर था। अब्दुल हसीम खान और मुहम्मद उमर की कोशिश को नाकाम कर यह काम उन्होंने बखूबी किया।

दर्द और हिम्मत का मिश्रण
उनके करियर की एक और घटना का जिक्र यहां करना जरूरी हो जाता है। रायपुर में 2015 में हॉकी वर्ल्ड लीग का मैच खेला जा रहा था। चोटिल पीआर श्रीजेश के शरीर का आधा हिस्सा पट्टियों में लिपटा हुआ और रह-रहकर दर्द उठ रहा था। तीन पेनकिलर खाकर गोलपोस्ट की रखवाली के लिये मैदान पर उतरे इस खिलाड़ी ने शरीर पर बंधी पट्टियों की ओर इशारा कर साथियों से मजाक में कहा, बिल्कुल ममी जैसा लग रहा हूं। कांस्य पदक के लिये इंडिया का मुकाबला हॉलैंड की टीम से था। अंतिम समय में फैसला पेनाल्टी शूटआउट से होना था। आखिरकार उन्होंने शानदार बचाव कर टीम को जीत दिलाई। इसी के साथ भारतीय हॉकी टीम ने एफआईएच के टूर्नामेंटों में 33 बरस से चला आ रहा पदकों का सूखा खत्म कर दिया।
रास्ता तलाशते हुए रास्ता बन गए
कभी अपनी मंजिल तलाश रहे इस हॉकी खिलाड़ी के नाम पर केरल में सड़क का नाम रखा गया है। रियो ओलंपिक 2016 में पीआर श्रीजेश न सिर्फ गोलपोस्ट की रखवाली करते बल्कि भारतीय टीम का नेतृत्व करते नजर आ रहे हैं। और ये दोनों ही काम वह बखूबी जानते हैं।

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Posted By: Molly Seth