Ludo Movie Review: लूडो गेम जब हम खेलते हैं गोटी होम पर हो रही होती है लगता है कि बस अब एक आ जाये और जीत पक्की है लेकिन उस वक़्त बार-बार छक्के आते हैं। वहीं जब सारी गोटियां अंदर होती हैं उस वक़्त छह का इंतजार होता है। फिर छह खूब इंतजार कराता है और पासे पर नहीं आता है। अनुराग की फिल्म लूडो के साथ भी वहीं हुआ है फिल्म का ट्रेलर देख कर लगा था कि चाल छह वाली चली है लेकिन एक आखिरी घर में आकर फिल्म एक का ही इंतजार करती रह जाती है और विनर बनने में नाकामयाब रहती है।

Ludo Movie Review in Hindi: हिंदी फिल्मों में अमूमन, शतरंज के खेल के रेफरेंस पर कई फिल्में बनी हैं। लूडो का रेफरेंस नया था। लेकिन रेफरेंस तक ही फिल्म सीमित रह गई है। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं। पढ़ें पूरा रिव्यू।

फिल्म: लूडो

कलाकार: पंकज त्रिपाठी, राजकुमार राव, अभिषेक बच्चन, फातिमा सना शेख, सान्या मल्होत्रा, आदित्य रॉय कपूर, रोहित सुरेश सर्राफ, पर्ल माने,आशा नेगी, शालिनी वत्स

निर्देशक: अनुराग बासु

ओटीटी चैनल : नेटफ्लिक्स

रेटिंग : 2 स्टार

क्या है कहानी

अनुराग फिल्म में खुद ही सूत्रधार बने हैं। चार मुख्य पात्रों की कहानियां हैं। बिट्टू (अभिषेक बच्चन ) अपनी पत्नी (आशा नेगी) के साथ खुश हैं, बेटी के साथ भी। लेकिन अचानक उसे जेल हो जाती है, उसकी पत्नी उसके ही एक दोस्त से शादी करती है, बिट्टू को अपनी बेटी से मिलने की तड़प है, ऐसे में उसकी कहानी में एक मोड़ आता है, जब वह एक और बच्ची से टकराता है। आलोक गुप्ता उर्फ़ आलू (राजकुमार राव ) पिंकी ( फातिमा सना शेख) का दीवाना है, लेकिन उसके शादी किसी और से हो जाती है। पिंकी का पति (परितोष त्रिपाठी) का दूसरी लड़की से अफेयर है। एक हादसा घटता है, आलोक, पिंकी की जिंदगी में वापस लौटता है। राहुल (रोहित), श्रीजा (पर्ल माने ) दोनों एक अजीबोगरीब हादसे के बाद टकराते हैं, अंडर डॉग रहे ये दो नाम अचानक हीरो बनने की कोशिश करते हैं। आकाश (आदित्य ) वॉइस आर्टिस्ट है, वह अहाना (सान्या) से शादी वाली साइट पर मिलता है, फिर दोनों करीब आते हैं, उनका एक वीडियो वायरल होता है और फिर दोनों नजदीक आते हैं. और इन सबकी कड़ी जुड़ती है

राहुल सत्येंद्र उर्फ़ सत्तू भईया (पंकज त्रिपाठी) जो बड़ा डॉन है और हर किसी की जिंदगी में नाक में दम कर रखा है। एक हादसे में उसे चोट आती है, और वह हॉस्पिटल पहुँच जाता है, वहां उसकी नर्स लता (शालिनी )से मुलाकात होती है। इस पूरी कहानी में किसे क्या मिला क्या नहीं, कौरवों और पांडवों में कौन विलेन, युधिष्ठिर ने नर्क में दुर्योधन को क्यों देखा, जैसे वही पुराने महाभारत के संदर्भ लिए गए हैं. चूंकि महाभारत से ही लूडो (चौसर) का रेफरेंस आया था, शायद यह वजह रही हो कि अनुराग इसे नए तरीके से दिखाने की कोशिश में हों। लेकिन पूरी फिल्म में एक भी कहानी नयी नहीं है, न ही सही तरीके से किरदार डिफाइन हुए हैं। किसी की भी प्रेम कहानी में कनेक्शन नहीं दिखता। अनुराग ने लेकिन हल्के-फुल्के अंदाज़ में सरकार और सिस्टम पर कटाक्ष किया है. वह अंदाज़ उनका पसंद आया है।

क्या है अच्छा

कहानी का ट्रीटमेंट अच्छा रखा गया है. वह अलग है।

क्या है बुरा

अनुराग बासु का सूत्रधार स्टाइल बेतुका है, संवाद समझ नहीं आये हैं, किसी भी कहानी में नयापन या ठोस वजह नहीं दिखी है। कैरेक्टर्स आपस में जुड़ते ही नहीं हैं। उलझी कहानी है. पूरी तरह बिखरी हुई है। फिल्म डार्क कॉमेडी नहीं रह जाती है। अनुराग ने लूडो का पूरा खेल तो अच्छा बिछाया, लेकिन उसे सही तरीके से समेट नहीं पाए हैं।

अदाकारी

बाजी इस बार राजकुमार राव की रही, उन्होंने आलू के रूप में, अपने बचपन के प्यार के लिए जो समर्पण दिखाया है, वह अनोखा है, पूरी फिल्म में उनका ही किरदार मजेदार है। फातिमा सना, सान्या मल्होत्रा अपने पुराने ढर्रे पर हैं। खासतौर से सान्या को थोड़ी अलग तरह की फिल्में अब करनी चाहिए। अभिषेक बच्चन पूरी फिल्म में एक तरह के एक्सप्रेशन में हैं। पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकार होते हुए, अनुराग ने उनके किरदार में अनोखापन नहीं लाया है। रोहित, पर्ल और शालिनी वत्स ने कम समय में भी अच्छा काम किया है। परितोष त्रिपाठी ने भी छोटी सी भूमिका में जान डाली है।

वर्डिक्ट : मुश्किल है कि फिल्म दर्शकों को पसंद आये।

Review by: अनु वर्मा

Posted By: Chandramohan Mishra