गांधी से खुद को जोड़ने की कोशिश करने वाले ज़्यादातर लोग राजघाट तो जाते हैं लेकिन बिड़ला भवन नहीं क्योंकि वहां जाने के मायने हैं उस व्यक्ति की हत्या से रूबरू होना जिसे राष्ट्रपिता कहा जाता है.


या जैसा एक लेखक ने कहा, बिड़ला भवन में एक प्रेत रहता है. हम उसका सामना करने से घबराते हैं. वह किसका प्रेत है?गांधी की हत्या को उचित मानने वालों की संख्या कम नहीं है और वे सब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा या शिव सेना के सदस्य नहीं हैं.पढ़िए पूरी रिपोर्टएक घनिष्ठ संबंधी ने मुझसे इस पर विचार करने को कहा कि गांधी की सारी महानता के बावजूद यह तो कबूल करना ही होगा कि अपने अंतिम दिनों में वह जो कर रहे थे वह एक नवनिर्मित राष्ट्र के हितों के लिहाज़ से घातक था.


जब पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ आक्रामक कार्रवाइयों में लगा था, गांधी जिद बांधकर उपवास पर बैठ गए थे कि भारत पाकिस्तान को अविभाजित देश के ख़जाने से उसका हिस्सा, पचपन करोड़ रुपये देने का अपना वादा पूरा करे. यह किसी भी दृष्टि से क्षम्य नहीं हो सकता था.गांधी को समाप्त करना एक राष्ट्रीय बाध्यता बन गई थी क्योंकि यह अनुमान करना कठिन था कि जीवित रहने पर अपनी असाधारण स्थिति का लाभ उठाते हुए भारत सरकार को वे कहां-कहां मजबूर करेंगे कि वह राष्ट्रहित के ख़िलाफ़ फ़ैसला करे. आखिर सरकार उनके शिष्यों की ही थी!भगत सिंह और सुभाष

इसके लिए वे गांधी की पारंपरिक भाषा और मुहावरे को ज़िम्मेदार मानते थे जो सामान्य जन को उनके अंधविश्वासों के इत्मीनान में रखकर एक लुभावना भ्रमजाल गढ़ती थी.क्रांतिकारी समझ नहीं पाते थे कि जनता यह क्यों नहीं समझ रही कि वे कहीं अधिक कट्टर साम्राज्य विरोधी हैं और गांधी के बहकावे में क्यों आ जाती है.यह बात कुछ-कुछ भगत सिंह ने समझने की कोशिश की थी. उनके लेखन से इसका आभास होता है कि अगर वह जीवित रहे होते तो संभवतः उनका गांधी से संवाद कुछ नई दिशाएं खोल सकता था लेकिन भगत सिंह की फांसी के लिए भी गांधी को ही जवाबदेह माना जाता है.गांधी ने राजनीति को और राज्यकर्म को संपन्न और अपनी सामाजिक स्थिति के कारण शिक्षित समुदाय के कब्जे से कुछ-कुछ आज़ाद कर यह साबित कर दिया था कि सिर्फ मनुष्य होना ही काफी है.गांधी से न तो पूरी तरह हिंदू खुश थे और न मुसलमान, ख़ासकर दोनों के संपन्न और ऊंचे तबके.

यह बात अधिकतर लोगों के ध्यान में नहीं कि हिंदू राष्ट्र का नारा देने वाली हिंदू महासभा और इस्लामी राष्ट्र का परचम बुलंद करने वाली मुस्लिम लीग को एक दूसरे के साथ मिलकर सरकार बनाने में उज्र न था.तभी तो उस मौत पर एकबारगी सदमा तो छा गया लेकिन फिर हत्या की उस विचारधारा के साथ उठने बैठने, हँसने-बोलने में हमने कभी परहेज नहीं किया.इसीलिए हम बिड़ला भवन जाते नहीं; डरते हैं, कहीं वह प्रेत हमारी पीठ पर सवार न हो जाए !

Posted By: Satyendra Kumar Singh