ओम पुरी सतीश कोशिक अन्नू कपूर सीमा विश्वास आदिल हुसैन और आमिर बशीर जैसे नामचीन कलाकार जब रंजीत कपूर के निर्देशन में काम कर रहे हों तो 'जय हो डेमोक्रेसी' देखने की सहज इच्छा होगी. सिर्फ नामों पर गए तो धोखा होगा. 'जय हो डेमोक्रेसी' साधारण फिल्म है. हालांकि राजनीतिक व्यंग्य के तौर पर इसे पेश करने की कोशिश की गई है लेकिन फिल्म का लेखन संतोषजनक नहीं है. यही कारण है कि पटकथा ढीली है. उसमें जबरन चुटीले संवाद चिपकाए गए हैं. फिल्म का सिनेमाई अनुभव आधा-अधूरा ही रहता है. अफसोस होता है कि एनएसडी के प्रशिक्षित कलाकार मिल कर क्यों ऐसी फिल्में करते हैं? यह प्रतिभाओं का दुरूपयोग है.

जय हो डेमोक्रेसी
दुरूपयोग प्रतिभाओं का
अवधि- 95 मिनट


गलतफहमी से शुरु होती है लड़ाई
सीमा के आरपार भारत और पाकिस्तान की फौजें तैनात हैं. दोनों देशों के नेताओं की सोच और सरकारी रणनीतियों से अलग सीमा पर तैनात दोनों देशों के फौजियों के बीच तनातनी नहीं दिखती. वे चौकस हैं, लेकिन एक-दूसरे से इतने परिचित हैं कि मजाक भी करते हैं. एक दिन सुबह-सुबह एक फौजी की गफलत से गोलीबारी आरंभ हो जाती है. इस बीच नोमैंस लैंड में एक मुर्गी चली आती है. मुर्गी पकडऩे भारत के रसोइए को जबरन ठेल दिया जाता है. फिर से गोलियां चलती हैं. अचानक यह खबर टीवी पर आ जाती है. राष्ट्रीय समाचार बन जाता है और सरकार रामलिंगम के नेतृत्व में एक कमेटी गठित कर देती है.
डेमोक्रेसी का है भाईचारा
फिलहाल यह फिल्‍म इस कमेटी के फैसले के आसपास रहती है. पाकिस्तान से हुई गोलीबारी का जवाब दिया जाए या नहीं? यह फैसला कमेटी करती है. हालांकि बाद में पता चलता है कि कमेटी के सदस्यों के निजी मामले इस राष्ट्रीय चिंता पा हावी हो जाते हैं. उनके इगो टकराते हैं. मुद्दा भटक जाता है. तू-तू मैं-मैं आरंभ हो जाती है. उधर सीमा पर नोमैंस लैंड में पाकिस्तानी रसोइया भी आ जाता है. नोमैंस लैंड में भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ के फौजी चीमा सरनेम के है, जो पंजाब के एक ही गांव से जुड़े हैं. उनके बीच भाईचारा कायम होता है. कमेटी के सदस्य किसी फैसले पर पहुंचने के पहले खूब लड़ते-झगड़ते हैं. और यह सब कुछ डेमोक्रेसी के नाम पर हो रहा है.
कहां-कहां रह गई कमी
रंजीत कपूर की जय हो डेमोक्रेसी की शुरूआत अच्छी है. ऐसा लगता है कि हम उम्‍दा सटायर देखेंगे, लेकिन कुछ दृश्यों के बाद फिल्म धम से गिरती है. फिर तो सब कुछ बिखर जाता है. हंसी गायब हो जाती है. अनुभवी और सिद्ध कलाकार भी नहीं बांध पाते. कहीं कोई पंक्ति अच्छी लग जाती है तो कहीं कोई दूश्य प्रभावित करता है, लेकिन फिल्म अपना असर खो देती है. थोड़ी देर के बाद सारे कलाकार भी बेअसर हो जाते हैं. कलाकारों को दोष दिया जा सकता है कि उन्होंने ऐसी अधपकी फिल्म क्यों की? उस से बड़ी दिक्कत लेखन और निर्देशन की है. जरूरी नहीं कि उम्दा विचार पर उम्दा फिल्म भी बन जाए. यह फिल्म उदाहरण है कि कैसे कलाकारों की क्रिएटिव फिजूलखर्ची की जा सकती है. सभी कलाकार निराश करते हैं. उन्होंने दी गई स्क्रिप्ट के साथ भी न्याय नहीं किया है. अन्नू कपूर दक्षिण भारतीय के रूप में उच्चारण दोष तक ही सिमटे रह गए हैं. कहीं तो वे किरदार की तरह भ्रष्‍ट उच्चारण करते हैं और कहीं अन्नू कपूर की तरह साफ बोलने लगते हैं. आदिल हुसैन ने केवल च के स उच्चारण में ही अभिनय की इतिश्री कर दी है. ओम पुरी, सीमा विश्वास और सतीश कौशिक का अभिनय भी असंतोषजनक है.
Review by : Ajay Brahmatmaj
abrahmatmaj@mbi.jagran.com

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Posted By: Abhishek Kumar Tiwari