देवीभागवत में प्रमुख नागों का नित्य स्मरण किया गया है। हमारे ऋषि-मुनियों ने नागोपासना में अनेक व्रत-पूजन का विधान किया है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी नागों को अत्यन्त आनन्द देने वाली- 'नागानामानन्दकरी' पंचमी तिथि को नागपूजा में उनको गो-दुग्ध से स्नान कराने का विधान है।


कहा जाता है कि एक बार मातृ-श्राप से नागलोक जलने लगा। इस दाहपीड़ा की निवृत्ति के लिए नागपंचमी को - गो-दुग्ध स्नान जहाँ नागों को शीतलता प्रदान करता है, वहाँ भक्तों को सर्पभय से मुक्ति भी देता है। नागपंचमी की कथा के श्रवण का बड़ा महत्व है। इस कथा के प्रवक्ता सुमन्तु मुनि थे तथा श्रोता पाण्डववंश के राजा शतानीक थे। कथा इस प्रकार है-
एक बार देवताओं तथा असुरों ने समुद्रमन्थनद्वारा चौदह रत्नों में एक अश्वरत्न प्राप्त किया था। यह अश्व अत्यन्त श्वेत वर्ण का था। उसे देखकर नागमाता कद्रू तथा विमाता विनता- दोनों में अश्व के रंग के सम्बन्ध में वाद-विवाद हुआ। कद्रू ने कहा कि अश्व के केश श्यामवर्ण के हैं। यदि मैं अपने कथन में असत्य सिद्ध होऊँ तो मैं तुम्हारी दासी बनूँगी अन्यथा तुम मेरी दासी बनोगी।कद्रू ने नागों को बाल के समान सूक्ष्म बनाकर अश्व के शरीर में आवेष्टित होने का निर्देश किया, किन्तु नागों ने अपनी असमर्थता प्रकट की। इसपर कद्रू ने क्रुद्ध होकर नागों को श्राप दिया कि पाण्डववंश के राजा जनमेजय नागयज्ञ करेंगे, उस यज्ञ में तुम सब मिलकर भस्म हो जाओगे।


नागमाता के श्राप से भयभीत नागों ने वासुकि के नेतृत्व में ब्रह्मा जी से श्रापनिवृत्ति का उपाय पूछा तो ब्रह्मा जी ने निर्देश दिया- यायावरवंश में उत्पन्न तपस्वी जरत्कारु तूम्हारे बहनोई होंगे। उनका पुत्र आस्तीकि तुम्हारी रक्षा करेगा। ब्रह्मा जी ने पंचमी तिथि को नागों को यह वरदान दिया तथा इसी तिथि पर आस्तीक मुनि ने नागों का परिरक्षण किया था। अत: नागपंचमी का यह व्रत ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।हमारे धर्मग्रन्थों में श्रावणमास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपूजा का विधान है। इस दिन सर्पों को दूध से स्नान और पूजन कर दूध पिलाने से वासुकीकुण्ड में स्नान करने, निज गृह के द्वार में दोनों ओर गोबर के सर्प बनाकर उनका दधि, दूर्वा, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, मोदक, और मालपुआ आदि से पूजा करने और ब्राह्मणों को भोजन कराकर एक भुक्त व्रत करने से घर में सर्पों का भय नहीं होता है। अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कंबल, कर्कोटक, अश्व, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालीय, तथा तक्षक इन नागों के नाम हल्दी और चंदन से दीवाल पर लिखें तथा नाग माता कद्रू को भी लिखकर फूल आदि से पूजा कर निम्नलिखित मंत्र से प्रार्थना करें- अनन्तं वासकिं शेषं पद्मकम्बलमेव च।तथा कर्कोटकं नागं नागमश्वतरं तथा।।धृतराष्ट्रंं शंखपालं कालाख्यं तक्षकं तथा।पिंगलञ्च महानागं प्रणमामि मुहुर्मुरिति।।

इस दिन लोहे की कड़ाही में कोई चीज ना बनावे। नैवेद्यार्थ भक्ति द्वारा गेहूं दूध का पायस बनाकर भुना चना, धान का लावा, भुना हुआ जौ, नागों को दें इस दिन लड़कों को यह चीज़ देने मात्र से दांत मजबूत हो जाते हैं। सर्प के दर्शन मात्र से मनुष्य की अधोगति होती है तमोगुणी ही सर्प होता है इसमें संशय नहीं है। जो प्राणी धन की कृपणता का त्याग कर नाग पंचमी का व्रत तथा अर्चन करता है उस प्राणी के हितार्थ सब नागों के स्वामी शेष एवं वासुकि नाथ भगवान हरि से, सदाशिव से हाथ जोड़ प्रार्थना करते हैं शेष और वासुकि की प्रार्थना द्वारा शिव और भगवान विष्णु प्रसन्न होकर उस जीव की कामनाओं को परिपूर्ण करते हैं। यह जीव नाग लोक में अनेक तरह के भोगों को भोगने के बाद में बैकुंठ लोक या शोभायमान कैलाश में जाकर शिव या विष्णु का गण होकर परमानंद का भागी हो जाता है।

'ऊँ कुरुकुल्ये हूँ फट् स्वाहा' उपरोक्त मंत्र सर्प विष का प्रतिशोधक है। अतः विधि पूर्वक इसके जप से सर्प विष नही लगता।भारत धर्मप्राण देश है। भारतीय चिन्तन प्राणिमात्र में आत्मा और परमात्मा के दर्शन करता है एवं एकता का अनुभव करता है-समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
यह दृष्टि ही जीवमात्र- मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट-पतंग- सभी में ईश्वर के दर्शन कराती है। जीवों के प्रति आत्मीयता और दया भाव को विकसित करती है। अत: नाग हमारे लिए पूज्य और संरक्षणीय हैं। प्राणिशास्त्र के अनुसार नागों की असंख्य प्रजातियाँ हैं, जिनमें विषभरे नागों की संख्या बहुत कम है। ये नाग हमारी कृषि सम्पदा की कृषिनाशक जीवों से रक्षा करते हैं। पर्यावरण रक्षा तथा वनसम्पदा में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। नागपंचमी का पर्व नागों के साथ जीवों के प्रति सम्मान, उनके संवर्धन एवं संरक्षण की प्रेरणा देता है। यह पर्व प्राचीन समय के अनुरूप आज भी प्रासंगिक है। आवश्यकता है हमारी अन्तर्दृष्टि की।ज्योतिषाचार्य पंडित गणेश प्रसाद मिश्र

Posted By: Vandana Sharma