रांची : डोकापिढ़ी गांव में जब पुलिस-नक्सलियों के बीच मुठभेड़ चल रही थी, तब गोलियों की गूंज डोकापिढ़ी गांव में भी सुनाई दे रही थी। हालांकि घटनास्थल और बस्ती की दूरी करीब एक किलोमीटर अंदर है। कंव की बस्ती ऐसी जगह पर है, जो चारों ओर घने जंगलों से घिरा है। उसके प्रवेश मार्गो पर ही माओवादियों की गतिविधियां होती है। एक ग्रामीण ने नाम नहीं छापने के शर्त पर बताया कि जब गोलियां चल रही थी उस समय अधिकांश ग्रामीण जग चुके थे। लोग खेती-बारी और मजदूरी के लिए तैयारी कर रहे थे। इस दौरान गोलियों की फाय¨रग की आवाज सुनकर सहम गए। उन्हें यह नहीं मालूम था कि गोलियां पुलिस खा रही या माओवादी। माओवादियों को ग्रामीण पार्टी का आदमी कहते हैं। ग्रामीण का कहना था कि उन्हें लगा कि पार्टी का आज उस इलाके से सफाया हो जाएगा। हालांकि ग्रामीणों को यह जानकारी तक नहीं कि ताबड़तोड़ हुई फाय¨रग से किसका नुकसान हुआ। गोलीबारी के बाद अधिकांश पुरुष गांव छोड़कर दूसरी बस्ती में चले गए। बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं गांव में सभी एक जगह पर इकट्ठे होकर चर्चा करने में जुटी थीं।

17 घरों का है गांव

डोकापिढ़ी गांव की पहचान इस घटना के बाद अति नक्सल प्रभावित गांव के रूप में होने लगी है। घटनास्थल और बस्ती की दूरी एक किलोमीटर होने के बावजूद वे दहशत के साए में जीते हैं। गोलियां चलने के बाद उनका डर बढ़ गया था। लेकिन वह दिन में भी सहमे रहते थे। कहीं एनकाउंटर शुरू न हो जाए। आखिर वही हुआ।

सड़कें थीं सुनसान

डोकापिढ़ी गांव की सभी सड़कें सुनसान थी। बस्ती घुसने के लिए दो रास्ते हैं। दोनों ही रास्तों में कोई नजर नहीं आ रहा था। दहशत ऐसी थी कि गांव में लोग जानवर चराते दिखे। गांव के लोग नए चेहरों को देखकर एक टक देखते रहते। कई ग्रामीण जानबूझकर घटना से अनजान बनने की कोशिश भी कर रहे थे।

गांव का चबूतरा था खाली

गांव के जिस चबुतरे में हर दिन लोग बैठते थे, वह खाली था। केवल कुछ महिलाएं और बुजुर्ग बैठे थे। एक दिव्यांग युवक ने बताया कि उस इलाके में पुलिस नहीं जाती। न विधायक पहुंचते, न कोई जनप्रतिनिधि पहुंचता। उनकी परेशानी सुनने भी कोई नहीं आता।

Posted By: Inextlive