20 नवंबर 1962 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश को संबोधित करते हुए चीन से मिली सैनिक हार को स्वीकार कर लिया था.

युद्ध में विपरीत परिस्थतियों में देश के नेता से उम्मीद की जाती है कि वह देश वासियों के मनोबल को गिरने नहीं देगा। दूसरे विश्व युद्ध में जब ब्रिटेन को जर्मनी के हाथों कई झटके मिल रहे थे तब प्रधानमत्री चर्चिल ने दिल हिला देने वाला वह भाषण दिया था,'हम हर हालत में अपने देश की रक्षा करेंगे। हम समुद्र के किनारे पर लड़ेंगे। हम ज़मीन पर लड़ेंगे.हम सड़कों पर लड़ेंगे.हम पहाड़ों पर लडेंगे लेकिन कभी भी हथियार नहीं डालेंगे.'

चर्चिल की तुलना में नेहरू का देश के नाम संदेश अत्यंत निरुत्साही था। उस समय भारतवासियों के साथ साथ असम वासियों को हिम्मत की जरूरत थी। लेकिन अपने भाषण में उन्होंने असम के लोगों के साथ सहानुभूति होने का ज़िक्र कुछ इस अंदाज में किया था मानो वे वहाँ के लोगों को विदाई दे रहे हों।

प्रधानमंत्री नेहरू के इस भाषण की तीख़ी आलोचना हुई थी। असम के पृथकतावादी तत्व अभी तक उस भाषण का उदाहरण देते हुए भारत सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करते हैं।

संवादहीनता

1962 का भारत चीन युद्ध 20 अक्तूबर को शुरू हुआ और पूरे एक महीने तक चला। लेकिन इस बीच नेहरू ने देशवासियों को सिर्फ लड़ाई के पहले दिन यानी 20 अक्तूबर को ही संबोधित किया।

पूरे एक महीने तक उनमें और भारतवासियों के बीच संवादहीनता बनी रही। दूसरी बार वह 20 नवंबर को बोले और वो भी बेहद निराशाजनक खबरों के साथ

धक्कों के लिए तैयार रहें देशवासीनेहरू ने लोगों को याद दिलाया कि उन्होंने उनसे कहा था कि उन्हें छोटे-मोटे धक्कों के लिए तैयार रहना चाहिए। नेहरू ने लोगों को खबर दी कि सीमाओं से आने वाली ख़बरें बहुत सुखप्रद नहीं है

नेहरू ने देशवासियों को बताया कि चीनी दोहरी नीति पर चल रहे हैं। एक तरफ तो वो शाँति की बात कर रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ उनके हमले लगातार जारी हैं।

असम से सहानुभूतिनेहरू ने स्वीकार किया कि वालौंग, सीला और बोमडीला में भारतीय सेनाओं की हार हुई है। उन्होंने कहा कि उन्हें असम के लोगों से सहानुभूति है जिन्हें काफी मुसीबतों से जूझना पड़ रहा है।

असम वासियों को गलत या सही यह आभास मिला कि नेहरू उन्हें न सिर्फ विदाई दे रहे हैं बल्कि उनसे पल्ला भी झाड़ रहे हैं और इसके लिए उन्होंने उन्हें कभी माफ नहीं किया।

Posted By: Inextlive