देश के महानगर के स्कूलों में एक चलन शुरू हुआ है। बिल्कुल नया नहीं है। देर-सबेर यह लहर राज्यों की राजधानियों और बाकी शहरों और कस्बों तक भी पहुंचेगी। इन स्कूलों में क्लासरूम में सीसीटीवी कैमरे लग गए हैं। ये कैमरे स्कूल में सेंट्रल सर्वर्स से जुड़े हैं और यहां की लाइव फीड माता-पिता के मोबाइल फोन पर जा रही है।

माता-पिता न सिर्फ बच्चों को लगातार देख सकते हैं, बल्कि वे उनकी बातचीत भी सुन सकते हैं। ये सीसीटीवी कैमरे स्कूल के चप्पे-चप्पे पर लगे हैं।


न जाने शैतान किस शक्ल में सामने आ जाए

स्कूल बसों में सीसीटीवी कैमरे लग चुके हैं और बसों में सिक्युरिटी गार्ड तैनात हो गए हैं। आख़िरी बच्चा उतारने तक कोई न कोई टीचर भी बसों में रहने लगी हैं।

वे दिन गए जब माता-पिता बच्चों को स्कूल भेजकर निश्चिंत हो जाते थे। अब उन्हें किसी पर भरोसा नहीं है। पता नहीं शैतान किस शक्ल में सामने आ जाए।

वह कोई भी तो हो सकता है। टीचर, ड्राइवर, कंडक्टर, सीनियर छात्र, माली, कैंटीन वाला, सिक्युरिटी गार्ड, प्रिंसिपल। गुड़गांव या गुरुग्राम के एक पब्लिक स्कूल में मासूम प्रद्युम्न ठाकुर की निर्मम हत्या के बाद यह चलन और तेज होगा। माता-पिताओं का शक और गहरा होगा।

भारत में व्यक्तिगत सुरक्षा का परिदृश्य देखते ही देखते पूरी तरह बदल गया है। वे दिन गए जब जंगल और पहाड़ों से डकैत आते थे और लूटकर चले जाते थे।

अब अपराधी घोड़े पर चढ़कर नहीं आते। वे अक्सर हमारे बीच होते हैं और कई बार तो अपने ही लोग या रिश्तेदार होते हैं।

 

कोई भी हो सकता है अपराधी

यह हर किसी से बचकर रहने का समय है।

फ़िल्मों को अगर समाज का आईना मानें तो पाएंगे कि सुरक्षा परिदृश्य में आया यह बदलाव वहां भी दिख रहा है।

डकैतों पर बनी आखिरी फ़िल्म को आए अरसा बीत चुका है। चाइनागेट शायद वह आखिरी हिट फ़िल्म थी, जिसमें विलेन शहर के बाहर बियावान में रहता है।

अब अपराधी समाज के अंदर हैं। परिवार के अंदर हैं। अपने अपार्टमेंट में रहता है। पड़ोसी है।

हो सकता है कि वह हर दिन आपको देखकर गुड मॉर्निंग भी बोलता हो और स्माइल भी करता हो। वह पढ़ा लिखा और प्रोफेशनल हो सकता है। दरअसल वह कोई भी हो सकता है।

इस आसपास के भय ने सुरक्षा के मायने भी बदल दिए हैं। अब जोर इस बात पर नहीं है कि शहर या कस्बे या गांव को सुरक्षित बनाया जाए। अब सुरक्षा की दीवार घर के पास और घर के अंदर आ गई है।


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हर साल दोगुनी रफ़्तार से बढ़ रहा कारोबार

एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में भारत में सुरक्षा उपकरणों का कारोबार 8,000 करोड़ रुपये का था, जिसके 2020 तक बढ़कर 18,000 करोड़ रुपये सालाना हो जाने की उम्मीद है।

यह बिज़नेस हर चार साल में दोगुना हो जाता है। इसे देश के सबसे तेज़ बढ़ते कारोबारों में से एक माना गया है। खासकर बायोमैट्रिक सिक्युरिटी इक्विपमेंट का बाज़ार सबसे तेज़ी से बढ़ रहा है।

सवाल उठता है कि भारत के लोग इतना डर क्यों रहे हैं और किनसे डर रहे हैं? क्या उन्हें पुलिस और सुरक्षा की उन व्यवस्थाओं पर भरोसा नहीं है, जिसे राज्य यानी सरकार उपलब्ध करा रही है?

ज़ाहिर है कि लोगों का इस मायने में सरकार पर भरोसा नहीं है। दरअसल उन्होंने मान लिया है कि सुरक्षा की कुछ ज़रूरतें ऐसी हैं, जिसके लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।

अपार्टमेंट की गेट पर सोसाइटी का अपना गार्ड तैनात करना या अपनी कोठी के बाहर अपना गार्ड खड़ा करना इसी सोच के तहत है। इसके अलावा शायद यह भी माना जा रहा है कि पुलिस बेशक अपराध अनुसंधान करेगी, लेकिन अपराध होने से रोकने का दायित्व सिर्फ़ पुलिस पर नहीं छोड़ा जा सकता है।

अपराध की प्रकृति में आया बदलाव इसकी सबसे बड़ी वजह है। मिसाल के तौर पर महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले यौन अपराधों को देखें, तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि लगभग सभी मामलों में अपराधी या तो रिश्तेदार होगा या कोई जान-पहचान वाला।

 

कामयाब लोगों का अलगाववाद

एक और चीज़ जो बदली है, वह है कि इलीट लोगों की जीवन पद्धति के बारे में वंचित लोगों को अब पहले से ज्यादा जानकारी है। ख़ासकर टीवी सीरियल और सोशल मीडिया की वजह से इलीट लोगों के कई राज, अब सार्वजनिक हैं। उनकी ठाठ, जो अब तक आम लोगों की नजरों से ओझल थी, वह खुल चुकी है।

यह बात समाज में बड़े पैमाने पर असंतोष पैदा कर रही है। इलीट लोगों के लिए सबसे बड़ा खतरा अब यहां से आ रहा है। इससे बचने के लिए वे अपनी अलग सुरक्षित दुनिया सजा रहे हैं, जिसे प्रोफेसर रणधीर सिंह 'ससेशन ऑफ़ द सक्सेसफुल' यानी 'कामयाब लोगों का अलगाववाद' कहते हैं।

भारत में चूंकि क्रांति की कोई परंपरा नहीं है, इसलिए मुमकिन है कि इस तरह उपजा असंतोष अपराध की शक्ल में बाहर आ रहा है।

इनसे बचना जरूरी है। भारत में निजी सुरक्षा के फलते-फूलते बाज़ार के पीछे एक वजह यह भी है।

 

(गीता यादव भारतीय सूचना सेवा की अधिकारी हैं। प्रस्तुत विचार निजी हैं। दिलीप मंडल समाजशास्त्र के शोधार्थी हैं।)

Posted By: Chandramohan Mishra