पाकिस्‍तान के पेशावर शहर में आतंकी हमले में मासूम बच्‍चों के मारे जाने के बाद न सिर्फ वहां बल्‍कि हिंदुस्‍तान में भी गम और गुस्‍सा है. इस हमले पर प्रतिक्रिया के लिए नोबेल शांति पुरस्‍कार विजेता मलाला युसुफजई से आईनेक्‍स्‍ट के सीनियर न्‍यूज एडिटर विश्‍वनाथ गोकर्ण ने बात की.


पेशावर में मासूम बच्चों के कत्लेआम की सबसे पहली खबर मुझे मेरे अब्बू से मिली. मैं चौंक पड़ी थी. मेरी नजरों के सामने दो साल पहले का मंजर किसी फिल्म की तरह रिवाइंड होने लगा. मेरी आंखों के सामने अचानक से स्याह अंधेरा छाने लगा. मुझे मेरा वतन याद आया. वहां की मिट्टी की सोंधी खुशबू मेरे जेहन में तारी होने लगी. ऐसा लगा जैसे इस खौफनाक वारदात में मारे गये मेरे हमवतन भाई बहन और उनकी गमजदा फैमिली के मेम्बर्स मेरे सामने आकर खड़े हो गये हैं. उनकी घूरती निगाहों में एक सवाल था, क्या यही इस्लाम है? यकीन मानिए मेरे जेहन में दिनभर यही कौंधता रहा कि हमारे रसूल-ए-पाक ने हमें मजहब के जो मायने बताये थे वो ये तो कतई नहीं थे. फिर ये कौन हैं जो इस्लाम और रसूल के नाम पर दुनिया भर में इन्सानों का भेड़ बकरियों की तरह कत्लेआम कर रहे हैं?



पख्तूनी भाई बहनों के एजुकेशन की पैरवी करने पर फायरिंग

आज से ठीक दो साल पहले इन्हीं तालिबानियों ने स्वात की घाटी में मेरे स्कूल बस पर सिर्फ इसलिए फायरिंग की थी क्योंकि मैंने अपने पख्तूनी भाई बहनों के एजुकेशन की पैरवी की थी. तब भी हमारे मुल्क की पाक जमीन हम मासूमों के खून से लाल हुई थी और आज फिर उन्होंने अपनी दरिंदगी के लिए पेशावर को चुना. हो सकता है कल को वो किसी दूसरे मुल्क या शहर को अपना टारगेट बनाएं. इसका नतीजा शायद ये हो कि मेरी तरह बहुत सारे लोगों खासकर बच्चों को अपनी सरजमीं छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़े. अपना वतन, अपना शहर, अपना घर और अपने ढेर सारे प्यारे दोस्तों को छोडऩे का जो गम है, जो दर्द है या जो कशिश है उसे शायद कोई मुहब्बती इन्सान ही समझ सकता है. पॉलिटिक्स या रिलीजन के बारे में मेरी बहुत ज्यादा समझ नहीं है लेकिन मैं इस बात के सख्त खिलाफ हूं कि बच्चों को मजहब या सियासत का शिकार बनाया जाए. मेरी चाहत सिर्फ यही है कि मुल्क कोई भी हो, आप हम बच्चों को जिंदगी जीने के लिए हमारा बुनियादी हक हमें दे दें.कौन गुनहगार है ये सब बताने के लिए मेरी उम्र अभी बहुत कम
आज पाकिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए कौन जिम्मेदार है या कौन गुनहगार है ये सब बताने के लिए मेरी उम्र अभी बहुत कम है लेकिन मैं ये जरूर देख रही हूं कि मेरा मुल्क आज जल रहा है. वहां तालिबानी तंजीमों ने अपने अड्डे बना लिये हैं. ये सब वहां अर्से से चल रहे घिनौने खेल का नतीजा है. हमसे ये चूक जरूर हुई है कि हमने इन दरिंदों को अपने यहां बसने की इजाजत दी. हमने उन्हें कट्टरवाद फैलाने के मौके मुहैया कराए. हम खुद भी ये नहीं समझ सके कि मजहब का मतलब सिर्फ मुहब्बत है. आज अपने मुल्क की हालत देख मेरा दिल बहुत गमजदा है. ऐसी वारदात मुझे मुद्दत तक सालती हैं. रात में मुझे डरावने सपने आते हैं. मैं जानती हूं कि ये कोई मेरी अकेली हालत नहीं है. दुनिया में मुझ जैसी न जाने कितनी लड़कियां होंगी जिन्हें नकली बंदूक से भी डर लगता होगा लेकिन इन दरिंदों की गोली खाने के बाद उन पर हर वक्त खौफ का साया तारी रहता होगा. कल जो बच्चे अल सुबह यूनीफॉर्म पहने हंसते खेलते स्कूल गये होंगे आज वो कब्र में कफन ओढ़े सो रहे होंगे. उनके मां बाप के न जाने कितने अरमान रहे होंगे, आज वो सबके सब कब्र में दफन हो गये होंगे. आप जरा समझिए, ये कत्लेआम सिर्फ उन बच्चों का नहीं है. पेशावर में उन बच्चों से वाबस्ता हर जिंदगी का कत्लेआम हुआ है.पीस प्राइज मिलने के बाद भी मेरी जिंदगी में कोई चेंज नहीं आया
यकीन मानिए कि नोबेल पीस प्राइज मिलने के बाद भी मेरी जिंदगी में कोई चेंज नहीं आया है. मैं वैसी ही एक आम पाकिस्तानी लड़की हूं जो पहले हुआ करती थी. मेरी जंग सिस्टम से है. मेरी लड़ाई बच्चों के वजूद और उनके हक के लिए है. मैं जानती हूं कि मेरे सामने जो भी लोग हैं वो बहुत ताकतवर हैं लेकिन मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि वो बेहद कायर हैं. वो शायद सोच रहे होंगे कि सौ डेढ़ सौ बच्चों की जिंदगी खत्म कर उन्होंने फतह हासिल कर ली. लेकिन वो यह समझ नहीं पा रहे हैं कि ये हमारी हार नहीं है. आज ये वक्त गम का है. फाकाकशी का है. दुआ का है. इंसानियत की सलामती के लिए जिक्र और फिक्र का है. यकीनन मुल्क के लिए शहीद हुए इन सारे बच्चों को जन्नत नसीब हुई है. अल्लाह की बारगा में मेरी दुआ है कि पाकिस्तान के आवाम को सुकून हासिल हो. आमीन...

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Posted By: Abhishek Kumar Tiwari