समझदार वही है जो मुक्ति... मुक्ति करने के बजाय अपनी अंतर्रात्मा की आवाज सुनकर खुद ही खुद को मुक्त करे और अन्यों को भी मुक्त होने में सहयोगी बने।

राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंजजी। भारतवर्ष आज कोरे उपदेशकों का देश बन गया है, इस बात से कोई भी इंकार नहीं करेगा। आज कोने-कोने में मंदिर बन रहे हैं, गली-गली में कथा-कीर्तन हो रहा है फिर भी देश दिनोंदिन अधोपतन के गर्त में गिरता जा रहा है। क्या आपने कभी विचार किया है कि ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तोते की तरह विद्वानों के महान उपदेशों और दार्शनिक सिद्धांतों को लोगों ने रट तो लिया लेकिन व्यावहारिक जीवन में वे उनकी कुछ भी अनुभूति नहीं कर रहे हैं।

भ्रम में मत रहो

एक दिन बाजार में चलते-चलते एक व्यक्ति की नजर किसी दुकान के भीतर रखे सुनहरे पिंजरे में बैठे तोते के ऊपर पड़ी। उसने देखा कि तोता बड़े मजे से स्वादिष्ट भोजन खा रहा था, पर बीच-बीच में ‘मुक्ति... मुक्ति’ की रट भी लगाए जा रहा था। यह देख व्यक्ति को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह कैसा कैदी है, जो कैदखाने में आनंदपूर्वक भोजन भी कर रहा है और मुक्त होने की पुकार भी लगा रहा है। करुणा के वशीभूत होकर उसने दुकान के अंदर जाकर तोते को आजाद करने के ख्याल से पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही तोते ने एक बार दृष्टि उठाई और फिर वापस अपना भोजन कुतरने लगा। यह दृश्य देख उस व्यक्ति के आश्चर्य की सीमा न रही और फिर उसने जबरदस्ती तोते को पकडक़र बाहर निकाला और मुक्त आकाश में छोड़ दिया, लेकिन वह असीम गगन में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने की जगह फिर से पिंजरे को पकडक़र बैठ गया। यह सारा दृश्य देख रहे दुकानदार ने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाया और हंसते हुए कहा कि ‘मुक्ति... मुक्ति’ तोते की अंतर्रात्मा की पुकार नहीं है बल्कि मेरे द्वारा सिखाया हुआ शब्द-जाल है जिसका उसकी चाह से कोई भी संबंध नहीं है।


तोते की तरह पिंजरे से मत चिपके रहो

इस कथा पर हमें गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि तोते के इस आचरण पर आश्चर्य करने की आवश्यकता है? क्या आज के मनुष्यों का आचरण भी उस तोते-जैसा नहीं है? आज लाखों मनुष्य प्रतिदिन भगवान से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। यह जानकर भी कि इस शरीर को छोडऩे के बाद ही मुक्ति मिल सकती है और मन ही मन मृत्यु के नाम से थर-थर कांपते भी हैं। इसी प्रकार अनेक मनुष्य प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हमारे कर्म-बंधन की जंजीरों को काटो, लेकिन जंजीरों की एक कड़ी भी टूटने पर, अपने एक भी निकट संबंधी के शरीर छोडऩे पर वे भगवान के ऊपर क्रोधित हो जाते हैं। भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हमें पंच विकारों से छुड़ाओ, लेकिन वे विकारों से उतना ही चिपटे रहते हैं, जितना तोता पिंजरे से।


तोता-ज्ञान मनुष्य के लिए
अनावश्यक बोझ होता है। उसे आडंबर और पांडित्य-प्रदर्शन में तो इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उससे कोई यथार्थ लाभ नहीं मिल सकता क्योंकि उसकी जड़ अनुभूति में नहीं है। अनुभूति-शून्य मनुष्य उपदेश देने के पश्चात बड़ी आसानी से कह देता है कि त्याग करना तथा विकारों को जीतना कठिन कार्य है। लेकिन जिसने, आध्यात्मिक सत्यों की स्वानुभूति कर ली, जो देह-अभिमान के धरातल से ऊपर उठकर आत्माभिमान के शिखर पर प्रतिष्ठित हो चुका है, उसे विकारों को छोडऩे के लिए प्रयास और पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता।

सुनों अपनी अंतर्रात्मा की आवाज

अमूमन, बच्चे रेत पर चमकीले पत्थरों को इकट्ठा करने में अपना समय नष्ट करते हैं, परंतु क्या कोई प्रौढ़ व्यक्ति ऐसा करेगा? बड़े होने पर जब अनुभव हो जाता है कि वह सब बच्चों का व्यर्थ खिलवाड़ था, तो क्या फिर भी किसी ने ऐसे कार्यों में अपना समय और पुरुषार्थ नष्ट किया है? नहीं न। तो समझदार वही है जो मुक्ति... मुक्ति करने के बजाय अपनी अंतर्रात्मा की आवाज सुनकर खुद ही खुद को मुक्त करे और अन्यों को भी मुक्त होने में सहयोगी बने।


इस कहानी को पढ़कर बदल जाएगा आपका जीने का नजरिया


अगर मानेंगे ये बात तो नहीं रूकेगा आपका कोई काम

Posted By: Chandramohan Mishra