RANCHI: कांपते हुए एक हाथ में बटाली और दूसरे हाथ में हथौड़ी। ठक। ठक। ठक। ठक दिन भर यही काम। कभी आराम नहीं। यह कहानी है कोकर निवासी 73 वर्षीय जय किशोर ठाकुर की। बुढ़ापा, अकेलापन और हाथी पांव(फाइलेरिया) से ग्रसित शरीर का बोझ। काम करने का जज्बा कोई सीखे, तो जय किशोर ठाकुर से। वह लकड़ी का पाटा और रोलर तैयार कर रहे हैं। बटाली और हथौड़ी से बड़ी ही बारीकी के साथ वह एक-एक खाने बना रहे हैं। इन रोलर और पाटों का यूज एक्यूप्रेशर पद्धति से इलाज में होता है। इन पाटों पर लोग कसरत करते हैं और निरोगी काया प्राप्त करते हैं।

एमएसएमई के रिटायर कर्मी हैं जयकिशोर

सरल व सहज स्वभाव वाले जयकिशोर ठाकुर बिहार स्टेट के माइक्रो स्मॉल एंड मिडियम इंटरप्राइजेज के टॉय डिपार्टमेंट में ऑपरेटर के पद पर तैनात थे। साल 2000 में वह रिटायर हुए, लेकिन साल 1994 से 2000 तक का पैसा नहीं मिला। उनकी नियुक्ति 1972 में हुई थी। रिटायरमेंट के बाद अब 1000 रुपए माहवार पेंशन जरूर मिलता है। जेके टाकुर कहते हैं कि यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहता तो पेंशन 2400 रुपए मिलता, लेकिन कम मिलता है। उसी से संतोष करना पड़ता है। घर में अकेलापन सालता है, तो क्या करें। पड़े- पड़े आदमी और भी बीमार पड़ जाता है। इसलिए खुद को इंगेज करने के लिए ये काम करता हूं। इसमें कुछ पैसे भी मिल जाते हैं और दिन भी आराम से कट जाता है।

क्वालिटी के साथ समझौता नहीं

जय किशोर ठाकुर कभी क्वालिटी के साथ समझौता नहीं करते। भले मुनाफा कम क्यों न मिले। चुनिंदा लकडि़यों से वह पाटा तैयार करते हैं। एक पाटा में ट्राएंगल साइज के सैकड़ों खाने होते हैं। एक पाटा तैयार करने में 3 से 4 घंटा समय लगता है। पाटा तैयार करने के एक दिन पहले वह लकड़ी लाते हैं। पूंजी का अभाव भी अक्सर बना रहता है। कई बार तो पाटा बनाने में क्रैक कर जाता है। इससे नुकसान भी उन्हें ही उठाना पड़ता है। जयकिशोर ठाकुर कहते हैं कि जिस दिन सबकुछ ठीक-ठाक रहता है, तो मुनाफा 200 रुपए के आसपास आ जाता है। एक दिन में मुश्किल से 3 पाटा तैयार हो पाता है। आज से 10 साल पहले वह एक दिन में 10 पाटा तैयार कर लेते थे।

प्रोफेसर एडवर्ड कुजूर ने नहीं मानी हार

कभी कुड़ूख भाषा की पाठ पढ़ाने वाले एडवर्ड कुजूर आज रिक्शा खींच रहे हैं। 20 साल पहले जेएन कॉलेज धुर्वा में उनकी नियुक्ति कुड़ुख भाषा के लेक्चरर के रूप में हुई थी। लेकिन कॉलेज प्रबंधन ने पद सेंक्शन नहीं होने का हवाला देते हुए उन्हें हटा दिया। झारखंड अलग होने के बाद यहां के लोगों में आशा की उम्मीद जगी। एडवर्ड को लगा कि उनके साथ कुछ न्याय होगा, लेकिन आज भी स्थिति जस की तस है.आदिवासी समाज के प्रबुद्ध लोगों ने एडवर्ड का दर्द वीसी से लेकर राज्यपाल तक पहुंचाया। लेकिन प्रोफेसर एडवर्ड कुजूर की हालत पर किसी को तरस नहीं आई। वह आज भी रिक्शा चला कर घरवालों का भरण पोषण करते हैं। कांटा टोली से उर्सुलाइन कान्वेंट स्कूल रोड में वह कभी भी रिक्शा चलाते मिल जाएंगे। वह खोरहा टोली के रहने वाले हैं। क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं के जानकारों की उपेक्षा राज्य के लिए चिंता की बात है।

Posted By: Inextlive