जून 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान सिखों की धार्मिक मामलों की सर्वोच्च संस्था अकाल तख़्त की तबाही के बाद सिखों के दुख और प्रतिशोध की भावना को हम सब जानते हैं.


हमने ये भी देखा कि इसके 19 साल बाद 'ख़ालिस्तान लहर' के नेता जरनैल सिंह भिंडरांवाले को 'शहीद' घोषित किया गया.लेकिन दुखी सिख समुदाय के अधिकतर सदस्यों ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.ये भी देखा गया कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की जहाँ इस संदर्भ में एक समय प्रशंसा की जा रही थी, वहीं ऐसी आवाज़ें इतनी कमज़ोर पड़ीं कि वे लोग ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए 'माफ़ी' माँगते सुनाई दिए.अल्पसंख्यकों के अधिकारऑपरेशन ब्लू स्टार इस बात का प्रतीक बन गया है कि कई संस्कृतियों के मेल-जोल से बने समाज में धार्मिक चिह्नों और अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों का सम्मान होना चाहिए.


चाहे कट्टरपंथी सिख संगठन इन यादों को चुनावों में या अलग सिख पहचान के संदर्भ में इस्तेमाल करते आए हैं, लेकिन इस घटना का सबसे बड़ा सबक़ यही है कि धार्मिक समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जाए और लोकतंत्र को मज़बूत किया जाए.ऑपरेशन ब्लूस्टार और उसके बाद हुई घटनाओं का यही सबक़ है.ऑपरेशन ब्लू स्टार से ठेस केवल सिख समुदाय और धर्मनिरपेक्ष लोगों को नहीं पहुँची बल्कि इसे पूरे क्षेत्र में सभी धर्मों और क्षेत्रों के लोगों ने महसूस किया.

इसीलिए इतिहास का इस्तेमाल सबक़ सिखाने के लिए नहीं बल्कि सबक़ सीखने के लिए होना चाहिए.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari