JAMSHEDPUR: सफल होना है तो कभी हार नहीं मानो। नाकामयाबी से लड़ते रहो, गिरने के बावजूद हर बार उठते रहो, बार-बार प्रयास करते रहो और कभी हिम्मत मत हारो। कोशिश करते रहें, कभी विश्वास करना मत छोड़ें, कभी हार मत मानें आपका दिन जरूर आएगा। यह कहना है ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियन पुलेला गोपीचंद का। गोपीचंद बुधवार को लोयोला स्कूल के फेजी ऑडिटोरियम में आयोजित दोराबजी टाटा व्याख्यान 'स्पो‌र्ट्स, ए सेलेब्रेशन' में अपना विचार व्यक्त कर रहे थे। मंच का संचालन प्रसिद्ध खेल पत्रकार बोरिया मजूमदार ने किया। उन्होंने कहा कि आपके सपने आपके जीवन का उद्देश्य हैं। इसलिए कभी हार नहीं माने और अपने सपनों को बीच में ना छोड़े। सिर्फ इसलिए मत छोड़ दे, कि चीजें कठिन हैं क्योंकि शुरुआत हमेशा कठिन होती है। उन्होंने खिलाडि़यों को संबोधित करते हुए कहा कि विजेता कभी हार नहीं मानते और हार मानने वाले कभी विजेता नहीं बनते। विजेता वह नहीं है जो कभी नहीं हारता लेकिन विजेता वह है जो कभी हार नहीं मानता।

बनना चाहते थे क्रिकेटर

1983 में भारत जब क्रिकेट का विश्व चैंपियन बना तो हर कोई क्रिकेटर बनना चाहता था। गोपीचंद भी वैसे ही युवाओं में शामिल थे। लेकिन क्रिकेट के मैदान में सीखने वालों की लंबी कतार होती थी। सोचा, टेनिस सीखा जाए। लेकिन, टेनिस में भी वही हाल था। बैडमिंटन कोर्ट में कोई नहीं जाता था। बस क्या था, सीधे-सादे गोपी ने बैडमिंटन में हाथ आजमाया। इसके बाद तो उन्होंने इतिहास ही रच दिया। विश्व फलक पर उन्होंने भारतीय बैडमिंटन को अलग पहचान दी।

शहरों को नजदीक से जाना

पुलेला गोपीचंद के पिता पुलेला सुभाष चंद्र बैंकर थे और उनका हमेशा ट्रांसफर हुआ करता था। कभी चेन्नई तो कभी ओडिशा। गोपीचंद को विभिन्न शहरों को नजदीक से समझने का मौका मिला। मां सुब्बारावम्मा गृहिणी हैं। हर मध्य वर्ग परिवार की तरह गोपीचंद के माता-पिता भी चाहते थे कि गोपी पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बने। गोपीचंद के बड़े भाई राजशेखर आइआइटी में थे। ऐसे में उनके ऊपर पढ़ाई का दबाव था। मां इसी शर्त पर बैडमिंटन कोर्ट पर ले जाने को तैयार होती थी कि वह सुबह 4.30 से 5.30 तक जोर आवाज में पढ़े।

कॉर्क खरीदने को पैसे नहीं होते थे

2001 में ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप जीतने वाले गोपीचंद के पास कभी शटल (कॉर्क) खरीदने के पैसे नहीं होते थे। कोच तीन दिन में एक ही शटल देते थे। वे भी क्या करते उन्हें बच्चों को सिखाने के लिए महीने में सिर्फ दस शटल ही मिला करता था। उस समय एक शटल का दाम छह रुपये हुआ करता था, जो उस समय के हिसाब से काफी महंगा हुआ करता था। गोपीचंद ने कहा कि उनके कॅरियर को संवारने के लिए परिवार ने काफी त्याग किया। उन्होंने बताया कि पिता के पास सिर्फ चार शर्ट ही हुआ करते थे। कभी होटल में खाने का मन करता था तो मां समझाती थी, बेटा होटल से अच्छा तो मैं घर में बना दूंगी।

सर्जरी के बाद भी हार नहीं मानी

कॅरियर के दौरान उन्होंने एड़ी के साथ-साथ दायें व बांए घुटने का सर्जरी कराना पड़ा। ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप के बाद 2004 में इंडिया एशियन सेटेलाइट टूर्नामेंट का खिताब जीता। 2003 में खेल के साथ-साथ कोचिंग की भी शुरुआत की। लेकिन युवा खिलाडि़यों को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उन्होंने खेल से संन्यास ले लिया।

साइना व सिंधू की तारीफ की

साइना नेहवाल व पीवी सिंधू के कोच पुलेला गोपीचंद ने दोनों के अनुशासन व दृढ़संकल्प की जमकर तारीफ की। हैदराबाद में गोपीचंद बैडमिंटन अकादमी चलाने वाले पुलेला ने अभी तक 100 से अधिक अंतरराष्ट्रीय खिताब दिए हैं। वह अपने शिष्यों को हमेशा जंक फूड से दूर रहने की सलाह देते हैं।

खिलाड़ी हैं तो चैंपियन हैं

उन्होंने बताया कि प्रत्येक खेल के लिए विशेष ट्रेनिंग की जरूरत होती है। उन्होंने कहा कि जीवन में खेल का महत्व है। हर कोई पदक नहीं जीत सकता, लेकिन खिलाड़ी बन सकता है। पदक जीतने से ज्यादा महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनना होता है। अगर आप खिलाड़ी हैं तो चैंपियन हैं।

हताश हो गई थी सिंधू

उन्होंने एक वाकया को याद करते हुए कहा कि एशियाई चैंपियनशिप में सिंधू पहले सेट में बढ़त हासिल की थी। लेकिन दूसरे सेट में 18-9 से बढ़त के बावजूद पिछड़ने लगी। एक समय वह इतना हताश हो गई कि अपने कोच गोपीचंद से जाकर कहने लगी, मुझे अब नहीं खेलना है। गोपीचंद ने उन्हें प्रोत्साहित किया और सिंधू ने मुकाबला जीत पदक अपने नाम किया। उन्होंने कहा कि सुधार की हमेशा गुंजाइश होती है। यही हर खेल की खूबसूरती है।

Posted By: Inextlive