क्या आप भी एक स्कूल जाते बच्चे की मां है? क्या हर रोज़ सुबह अपने बच्चे के लिए टिफिन तैयार करना आपके लिए लड़ाई के मैदान में उतरने जैसा अनुभव होता है.

या फिर रोज़-रोज़ ये काम करना आपको बोर करता है? इसलिए आपका बच्चा सुबह भूखे पेट बिना नाश्ते के स्कूल जा रहा है.

आपका जवाब यदि हां है तो परेशान ना हों क्योंकि ऐसा सिर्फ आपके साथ नहीं हो रहा है. इस तरह के अनुभव दुनिया के दूसरे देशों में भी रह रही मांओं को भी हो रहा है.

लंदन में खाद्य सामग्री बनाने वाली कंपनी केलॉग्स द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पांच शिक्षकों ने माना है कि उन्होंने अपने स्कूल में बच्चों को भूखे पेट सुबह स्कूल आते देखा है.

और इसकी एक बड़ी वजह माता-पिता की उदासीनता और पैसे की कमी पाई गई है. ऐसी जगहों पर दो तिहाई शिक्षक बच्चों को अपने घर से लाया खाना खिलाते हैं.

इस सर्वेक्षण के अनुसार हर छह में से एक प्राथमिक शिक्षक हर महीने अपनी जेब से लगभग दो हज़ार रुपए इन बच्चों के खाने पर खर्च करता है.

अलग नहीं है भारतभारत की स्थिती थोड़ी अलग है. यहां के ग्रामीण इलाकों में ज्य़ादातर बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं जहां उन्हें दोपहर को भोजन दिया जाता है.

मिड-डे मील की योजना केंद्र सरकार द्वारा ग़रीब बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए किया गया है. क्योंकि आमतौर पर जो बच्चे इन स्कूलों में पढ़ने आते हैं वो ये तो बेहद ग़रीब या फिर कम आय वाले परिवारों से आते हैं.

लेकिन महानगरों और तेज़ी से बड़े होते कस्बाई शहरों के स्कूलों की कहानी इससे अलग है. यहां के पब्लिक और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को आधुनिक शिक्षा दी जा रही है.

कई बार यहां पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता दोनों ही नौकरी कर रहे होते हैं, ऐसे में कई बार समय की कमी और कई बार दूसरे बच्चों और अभिभावकों की देखा-देखी, माता-पिता और बच्चे दोनों ही घर के खाने के प्रति उदासीन हो जाते हैं.

दक्षिण-पश्चिम दिल्ली कैंट इलाके में स्थित राजपूताना राईफल स्कूल की अध्यापिका मीनाक्षी सिंह पिछले 17 सालों से अध्यापन कर रही हैं. वे कहती हैं, ''मैंने अक्सर अपनी क्लास में माओं को अपने बच्चों को टिफिन में मैगी, ब्रेड पकोड़ा, स्नैक्स और नमकीन वगैरह देते हुए देखा है. हमने कई बार अभिभावकों को बुलाकर समझाया, कुछ दिन के लिए सबकुछ ठीक रहता है फिर हालात पहले जैसे हो जाते हैं.''

वे आगे कहती हैं, ''ऐसी स्थिती में हमने अभिभावकों को बच्चों के भोजन का मेनू बनाकर दिया और साफ-साफ कहा कि उन्हें किस दिन खाने में क्या दिया जाए. कई स्कूलों ने तो हारकर उनके खाने की ज़िम्मेदारी खुद ले ली.''

मीनाक्षी सिंह के मुताबिक, इससे काफी असर हुआ और ना सिर्फ बच्चे क्लास में ज्य़ादा नियमित हो गए बल्कि उनकी सेहत, पढ़ाई और ओवरऑल परफार्मेंस भी काफी बेहतर हुआ.

लेकिन नोएडा में रह रहीं और दो स्कूल जाते छोटे बच्चों की मां प्रोमिला कहती हैं, ''हम ऐसा मजबूरी में करते हैं. क्योंकि मेरा बेटा सुबह सात बजे भूखे-प्यासे स्कूल जाता है और तीन बजे वापिस आता है. ऐसे में अगर मैं उसकी पसंद का नाश्ता नहीं दूंगी तो सेहत खराब होगी. कुछ ना खाने से अच्छा होता है कि वो कुछ भी खा ले, बच्चा जब घर आकर कहता है कि मेरा फ्रेंड चाउमिन या बर्गर लाया था तो हमें भी खराब लगता है. इसलिए हम उन्हें उनकी पसंद का खाना दे देते हैं.''

ब्रेकफास्ट क्लबकेलॉग्स की सहायता ट्र्स्ट इस समय इंग्लैंड में 500 से ज्य़ादा ब्रेकफास्ट क्लब चला रहे हैं. फिर भी उनके पास ऐसे कई और निवेदन आ रहे हैं.

केलॉग्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर वे अपनी क्लब की संख्या नहीं बढ़ाते हैं तो इंग्लैंड में भूखे पेट स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या और बढ़ती जाएगी.

रिपोर्ट के अनुसार, ''ज्य़ादातर मामलों में देखा गया है कि इन बच्चों को अपने सुबह के नाश्ते का इंतज़ाम खुद करना होता है. क्योंकि या तो उनके माता-पिता के पास समय नहीं होता या फिर उन्हें ऐसा करना पसंद नहीं.''

पौष्टिक खाना ना मिलने का असर इन बच्चों के विकास और व्यवहार पर भी हो रहा है. ये बच्चे ना सिर्फ स्कूल में खराब बर्ताव करते हैं बल्कि वे पढ़ाई में पिछड़ने लगते हैं.

और इसकी वजह कहीं ना कहीं इन बच्चों के माता-पिता को सुबह के नाश्ते की उपयोगिता के बारे में ज्य़ादा जानकारी नहीं होना है.

जिसका नतीजा ये होता कि ये बच्चे अक्सर सुबह के पौष्टिक नाश्ते के बजाय हाथ में चॉकलेट या बिस्किट खाते हुए स्कूल आते हैं.

 

 

 

Posted By: Surabhi Yadav