विजया रामचंद्रन: 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है और इस वर्ष इसकी थीम ‘#PressForProgressNow’ है। मुझे ध्यान आता है कि पिछले वर्ष यह ‘BeBoldForActionNow’ थी। यह स्पष्ट है कि अब समय आ गया है जब सभी जगह महिलाओं को लैंगिक असमानता व उससे जुड़ी समस्याओं का दृढ़तापूर्वक Boldly सामना करना व प्रगति Progress के लिए दबाव बनाना चाहिए। अब बहानों का समय नहीं है। चुप रहकर सहने का भी समय नहीं है। आधी आबादी अब कमतर नहीं रह सकती। मुझे भरोसा है कि पुरुषों में से भी अनेक हमारी तरफ हैं।

प्रवासी मजदूरों की बेटियों की जिंदगी की सच

प्रवासी मजदूरों की बेटियों के समाज के लिए क्या मायने हैं? वह अपने अभिभावकों के साथ घूमने को विवश हैं और प्रवास के चलते इनकी नियमित स्कूली शिक्षा प्रभावित होती है जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए निर्धारित है। अगर बेटी है, तो उसे घर के कामकाज में भी हाथ बंटाना होता है; जैसे कि पानी लाना, घरेलू कामकाज निपटाना, मां की कपड़े व बर्तन धोने में मदद करना व छोटे भाई-बहनों का ख्याल रखना। इससे भी अधिक कि उसका परिवार ही लड़का नहीं लड़की होने के चलते उसके साथ भेदभाव करता है! ऐसे में बीते वर्ष उससे बदलाव के लिए बोल्ड बनने व इस वर्ष प्रोग्रेस के लिए आगे बढ़ने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? वह स्कूल कैसे जाएगी? उसका बचपन कैसे बचा रहेगा!

 

क्या उसे बोल्ड होकर प्रोग्रेस करने को मिलेगी! कैसे?

सच्चाई यह है कि समाज के सामने इतने सारे मसले हैं कि किसी ने उनके के बारे में सोचा ही नहीं है। वह वोट बैंक नहीं है। वह कानून व्यवस्था के लिए समस्या पैदा नहीं करेंगी और कर भी नहीं सकती। उनका कोई राजनीतिक फायदा नहीं उठा सकता। वह किसी संगठित श्रम बल का हिस्सा नहीं है जिनके लिए यूनियनें आवाज उठाती हैं। वह सिर्फ असंगठित श्रमिकों का हिस्सा भर हैं जिनकी न तो बाजार और न ही विधायिका में कोई आवाज है। उनका कोई चेहरा नहीं है। उनका हर जगह शोषण ही होता है।

 

जब शिक्षा का अधिकार (आरटीई) संविधान का हिस्सा बना तब मैं खुशी से भर उठी थी। इसलिए कि अब आठ साल तक स्कूली शिक्षा हर बच्चे( का अधिकार है और वह स्कूल में सुरक्षित रहेगी और सरकार/समाज उसका बचपन व सीखने की खुशी लौटाने की अपनी जिम्मेदारी से पीछा नहीं छुड़ा पाएगी चाहे वह गावं में रहे या शहर; गरीब हो या अमीर। यह सोने पर सुहागा था कि इसी अधिनियम की धारा 12 के तहत, हर स्कू्ल चाहे उसे किसी तरह की सरकारी मदद मिलती हो या नहीं की आरंभिक कक्षा की 25 प्रतिशत सीटें समाज के कमजोर तबके के बच्चों के लिए आरक्षित की गईं, निशुल्क (किताब/कॉपी व मिड डे मील सहित)। इन बच्चों की निशुल्क शिक्षा तब तक जारी रहनी है जब तक उनकी उम्र 14 वर्ष नहीं हो जाती या फिर वह 8वीं पास नहीं कर लेते। उम्मीद की जा सकती है कि वह आगे भी पढ़ेंगे व अपने सपनों को सच करेंगे। इसके मायने यह है कि समर्थ लोगों के लिए बने स्कूल एक तिहाई और बच्चों को पढ़ाएंगे व उनका सर्वांगीण शैक्षणिक विकास सुनिश्चित करेंगे जो सामाजिक समावेश को बढ़ावा देगा।

 

मेरा अपनी बहनों को सुझाव होगा कि हम मिलकर 'बोल्ड एक्शन व प्रोग्रेस नाउ' के लिए काम करें व हमारे संविधान में जो प्रावधान है उसका उद्देश्य पूरा हो सके। जिससे कि सभी बच्चें विशेषकर लड़कियों को जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करने व सीखने का अवसर मिल सके।

 

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस की बधाई.....

यह लेख विजया रामचंद्रन द्वारा लिखा गया है। विजया वरिष्ठ् सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह लंबे समय से प्रवासी श्रमिकों के हितों विशेषकर बच्चों की शिक्षा से जुड़े विषयों को उठाती आईं हैं। उन्होंने कानपुर में ईंट भट्ठों पर काम करने वाले प्रवासी श्रमिकों के लिए 'अपना स्कूल' की श्रृंखला खड़ी की है।

Posted By: Chandramohan Mishra