पदोन्नति में आरक्षण पर अलग-अलग सुर
चूँकि ये मुद्दा सीधे जनाधार और वोट से जुड़ा है इसलिए हर राजनीतिक पार्टी सावधानी बरत रही है। इस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था, जिसके बाद बहुजन समाज पार्टी ने इसे संसद में उठाकर संविधान संशोधन के जरिए लागू करवाना चाहा। राजेश जोशी डाल रहे हैं एक नजर।
अब आरक्षण के मुद्दे पर काँग्रेस उन्हें पशोपेश में डालना चाहती है, क्योंकि अगर भाजपा प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग को लेकर संसद की कार्यवाही में रुकावट डालेगी तो काँग्रेस के लिए उसे ‘आरक्षण-विरोधी’ और इस तरह दलित-विरोधी करार देने में आसानी होगी। इस विधेयक के जरिए काँग्रेस खुद को दलितों और आदिवासियों की खैरख्वाह के तौर पर भी स्थापित करना चाहती है।
भारतीय जनता पार्टीअभी तक पार्टी नेताओं ने बहुत उत्साह से इस मुद्दे पर कुछ नहीं कहा है, बल्कि वो अपनी रणनीति स्पष्ट करने से बचते रहे हैं। ऐसा लगता है कि इस मामले में बीजेपी किसी जल्दबाजी में नहीं है। मंगलवार को बहुजन समाज पार्टी की मायावती ने बीजेपी की सुषमा स्वराज और अरुण जेतली से मिलकर अपील की थी कि वो उस समय तक सदन चलने दें जब कि आरक्षण विधेयक पारित नहीं हो जाता।
चूँकि भारतीय जनता पार्टी का आधार अगड़ी जातियों में ज्यादा है, जो कि पहले से ही आरक्षण विरोधी हैं, इसलिए बीजेपी का आकलन है कि चुप्पी से उसे कोई खास नुकसान नहीं होने वाला। लेकिन वो प्रकट तौर पर अनुसूचित जातियों के विरोध में खड़ी नहीं दिखना चाहती।समाजवादी पार्टीउसकी माँग है कि ये सुविधा पिछड़े और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के कर्मचारियों को भी दी जाए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि उनकी सरकार सिर्फ सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानेगी और उसने राज्य में सामान्य वर्ग के कर्मचारियों की तरक्की की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई रामगोपाल यादव ने इस विधेयक को असंवैधानिक बताया है। दरअसल समाजवादी पार्टी इस विधेयक के खिलाफ स्पष्ट रुख लेकर अपने समर्थन का आधार मजबूत कर रही है।बहुजन समाज पार्टीदलितों और अनुसूचित जातियों में पार्टी का आधार होने के कारण इस मुद्दे का सबसे ज़्यादा राजनीतिक फायदा बहुजन समाज पार्टी को ही होना