Meerut : प्रकृति ने भले ही कुछ लोगों की आंखों में रोशनी नहीं दी पर ये मन की आंखों से इस दुनिया को देखते हैं. इस संसार को समझने के लिए इनके पास ब्रेल लैंग्वेज है जिसे 1824 में लुई ब्रेल ने इजाद किया. शुक्रवार को वल्र्ड लुई ब्रेल-डे के मौके पर आई नेक्स्ट पहुंचा विजुअली चैलेंज्ड बच्चों के बीच...


मन की आंखों से प्यारा लगे संसारये मन की आंखों से देखते हैं। समाज के लिए बेहद खास हैं। संस्कार से लेकर सेंस्टीविटी तक हर चीज आम बच्चों से ज्यादा। हम जैसे ही इन बच्चों की छोटी सी दुनिया में पहुंचे, सब हाथ जोडक़र झुके। हर किसी ने नमस्ते की। सबमें बस यही जानने की होड़ लगी थी कि किसकी नमस्ते का जवाब नहीं मिला। वल्र्ड लुई ब्रेल डे के मौके पर आई नेक्स्ट पुलिस लाइन स्थित प्री इंटीग्रेशन कैंप पहुंचा और इन खास बच्चों की भाषा को समझने की कोशिश की, जिनकी दुनिया हमसे कहीं ज्यादा रंगीन है।Case-1आठ साल का आसिफ हमारी तरह दुनिया को नहीं देख सकता। वो जितना उम्र में छोटा है उसके सपने उतने ही बड़े। आसिफ नेत्रहीन है और अपनी स्याह दुनिया में आसिफ के कई रंगीन सपने हैं। वो बड़ा होकर पुलिस अधिकारी बनना चाहता है।Case-2


क्लास सिक्स में पढऩे वाली स्वाति कसेरूखेड़ा में रहती है। स्वाति आगे चलकर टीचर बनना चाहती है और अपने जैसे ही ब्लाइंड बच्चों को पढ़ाना चाहती है। सिटी में ब्लाइंड बच्चे

हमारे शहर में भी ब्लाइंड बच्चे हैं जो पुलिस लाइन स्थित इस कैंप में रहकर खुद को समाज में पूरे आत्मविश्वास के साथ खड़े होने लायक बना रहे हैं। साथ ही एजुकेशन के लेवल पर आगे बढऩे की कोशिशों में जुटे हैं। इन बच्चों को  पढ़ाने वाले टीचर को स्पेशल बीएड करना होता है। टीचर को साइन लैंग्वेज जानना जरूरी होता है। ब्लाइंड लोगों के लिए मेरठ में आठवीं क्लास तक की एजुकेशन अवेलेवल है।मेरठ टू देहरादूनब्वॉयज के लिए परतापुर स्थित स्पर्श ब्लाइंड स्कूल है जहां वे 12वीं तक की पढ़ाई कर सकते हैं। लेकिन गल्र्स को आठवीं तक एजुकेशन के बाद देहरादून के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ विजुअली हैंडीकैप्ड में भेजा जाता है। यहां स्टूडेंट्स के लिए बीए, एमए और बीएड प्रोग्राम चलाए जाते हैं। इसके साथ ही कई वोकेशनल कोर्सेज की ट्रेनिंग भी दी जाती है।टीचिंग हेल्प टूल्स

इन ब्लाइंड बच्चों के लिए ब्रेल बुक्स, ब्रेल स्लेट, जर्मन ब्रेल स्लेट और ब्रेलर बेसिक टीचिंग टूल्स हैं। इनकी मदद से ये ब्लाइंड बच्चे अक्षरों को पहचानना, पढऩा और बोलना सीखते हैं। इन बच्चों के लिए साइन लैंग्वेज और फ्लैश कार्ड जैसी चीजों का महत्व नहीं है। क्योंकि ये चीजें मूक बधिर बच्चों के लिए काम आती हैं। पुलिस लाइन स्थित प्री इंटीग्रेशन कैंप में 60 बच्चे हैं जिनमें से 10 बच्चे विजुअली हैंडीकैप्ड हैं और बाकी 50 बच्चे मूकबधिर हैं। यहां चार टीचर हैं और तीन केयरटेकर। इन बच्चों के बीच रहने वाली स्पेशल टीचर कुमारी राजेश बताती हैं कि जहां सामान्य तौर पर स्कूल और कॉलेजों में शिक्षक और छात्र का अनुपात 1:30 का होता है वहीं चाइल्ड विद स्पेशल नीड के केस में यही अनुपात 1:8 रखा गया है।ऐसे आई ब्रेल लैंग्वेज
लुई ब्रेल, एक ऐसा नाम जिसने उन लोगों को पढऩे की आजादी दी जो इस दुनिया को देख पाने में असमर्थ हैं। ईश्वर ने उनकी आंखों में ज्योति नहीं दी, लेकिन यही वजह उनके पढ़ाई में रोड़ा साबित हो रही थी। मगर 1824 में लुई ब्रेल ने एक लैंग्वेज इजाद की जिसे ब्रेल लैंग्वेज का नाम दिया गया। ये भाषा लेफ्ट टू राइट पढ़ी जाती है। ब्रेल नाइट राइटिंग मिलिट्री कोड पर बेस्ड है। बार्बियर ने एक लैंग्वेज बनाई जिसमें 12 एम्बॉस्ड डॉट को 36 अलग तरह की साउंड्स के साथ सेट किया गया है। इसे उंगलियों के स्पर्श से समझा जा सकता था। ये लैंग्वेज दरअसल रात के अंधेरे में कमांड्स को समझने के लिए इजाद की गई थी, मगर मिलिट्री ने इसे सोल्जर्स के लिए मुश्किल बताते हुए रिजेक्ट कर दिया। इसके बाद 1821 में बार्बियर ने पेरिस के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर दि ब्लाइंड में विजिट किया जहां उनकी मुलाकात लुई ब्रेल से हुई। जब लुई ने इस भाषा को समझा तो इसमें बहुत सी प्रैक्टिकल प्रॉब्लम्स थी, जिसकी वजह से इसे ब्लाइंड्स की लैंग्वेज नहीं माना जा सकता है। तब ब्रेल ने इस भाषा के कुछ तथ्य लिए और एक ऐसी भाषा का आविष्कार किया जो नेत्रहीनों की भाषा बन गई।यहां है ब्रेल लाइब्रेरीदेहरादून स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ विजुअली हैंडीकैप्ड में ऑनलाइन ब्रेल लाइब्रेरी बनाई गई है। जो सिर्फ यहां पढऩे वाले स्टूडेंट्स के लिए ही नहीं बल्कि देश भर में रहने वाले विजुअली चैलेंज्ड लोगों के लिए बनाई गई हैं। यहां रजिस्ट्रेशन के बाद हर वीआई स्टूडेंट ऑनलाइन ब्रेल बुक्स को डाउनलोड कर सकता है। लास्ट ईयर ही इस ऑनलाइन ब्रेल लाइब्रेरी की शुरुआत की गई।'मैं विजुअली हैंडीकैप्ड बच्चों को पढ़ाती हूं और इन बच्चों को स्कूल तक लाने का प्रयास करती हूं। यहां पर उन्हें ओरिएंटेशन के साथ समाज में रहने वाले नॉर्मल लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना सिखाते हैं.'-रुचि कर्णवाल, स्पेशल एजूकेटर
'मैं मूकबधिर बच्चों को पढ़ाती हूं। मैं 24 घंटे यहीं इन्हीं बच्चों के बीच रहती हूं। इन बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल है। ये बच्चे नॉर्मल बच्चों की तरह चीजों को आसानी से समझ नहीं पाते। मगर थोड़ी सी कोशिश इनको बहुत आगे ले जा सकती है.'-कुमारी राजेश, स्पेशल टीचर

Posted By: Inextlive