बच्चों और शिक्षकों के बीच रिश्तों में आया अंतर

कुछ स्कूलों में शुरू किया गया गीता पाठ

Meerut। बदलते परिदृश्य में जहां स्कूल मनी फैक्टर पर काम कर रहे हैं, वहीं पैरेंट्स भी बच्चों को एनसीसी (नेक कटर कंपटीशन) के तहत ही पढ़ने के लिए प्रेशराइज करते हैं। बच्चें के दिमाग पर बने इस प्रेशर को स्कूली स्तर या परिवारिक स्तर पर न्यूट्रेलाइज कर हो जाना चाहिए, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता तो गुरुग्राम, लखनऊ और यमुनानगर जैसी वारदातें दिनों-दिन बढ़ती ही जाएंगी।

कमजोर होते रिश्ते

पहले स्कूलों में टीचर्स और स्टूडेंट के बीच एक आत्मीयता का रिश्ता होता था, जो अब देखने को नहीं मिलता। स्कूलों की मोटी फीस और प्रोफेशनल होते टीचर्स के बीच अभिभावक और बच्चे दोनों ही असहज होते जा रहे हैं। दरअसल, अभिभावक अपने बच्चों को नामी स्कूल में भेजने के लिए स्कूल की सभी शर्ते मान लेते हैं। साथ ही बच्चे के प्रति बेफिक्र भी हो जाते हैं। वह भी बिना यह जाने कि जिस स्कूल में उनका बच्चा पढ़ रहा है वह स्कूल मोरल वैल्यूज के प्रति कितना सजग है।

नहीं हैं समय

स्कूलों में बच्चों को क्या शिक्षा दी जा रही है। बच्चे क्या और कितना सीख रहे हैं, अभिभावकों के पास यह जानने की फुर्सत नहीं रहती हैं। ऐसे में बच्चे बिना अंजाम की चिंता किए खुद ही सही और गलत को डिसाइड कर लेते हैं। स्कूलों में एक क्लास में सभी बच्चों पर ध्यान देने की बात की जाती है पर वास्तव में ऐसा होता नहीं।

कोचिंग पर फोकस

कई स्कूलों में डमी एडमिशन का कारोबार भी खूब फल-फूल रहा है। स्कूल में सिर्फ बच्चे का नाम चलता है, जबकि अभिभावक पूरे साल उन्हें प्राइवेट कोचिंग में भेजते हैं। ऐसे में बच्चे असल स्कूली शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। ऐसे बच्चे अच्छे मा‌र्क्स जरूर ले आते हैं लेकिन जीवन की पाठशाला में फेल हो जाते हैं। सहोदय अध्यक्ष राहुल केसरवानी कहते हैं कि स्कूल में रेग्यूलर पढ़ने वाले बच्चों में दूसरे बच्चों से तालमेल और रिश्ते बनाने की समझ बढ़ती है।

गीतापाठ शुरू

कुछ स्कूलों नें अपने पाठ्यक्रम में गीता पाठ को ऐड किया है ताकि बच्चों में संस्कृति व अच्छे-बुरे का ज्ञान की समझ बढ़े। वहीं कुछ स्कूल अन्य गतिविधियों के जरिए बच्चों में मोरल वैल्यूज जगाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। बीडीएस इंटरनेशनल स्कूल के प्रिंसिपल गोपाल दीक्षित बताते हैं कि गीता में जीवन को जीने की कला का पूरा सार है। स्कूल में इसे एक अलग विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। मिलेनियम पब्लिक स्कूल में बच्चों को हैलो-हाय के अलावा हाथ जोड़ने व बड़ों के पैर छूने के महत्व को भी सिखाया जा रहा है। मेरठ सिटी पब्लिक स्कूल में बच्चों के लिए गुल्लक एक्टिविटी पर जोर दिया जा रहा है, जिससे बच्चों में संचय की आदत बननी शुरू हो।

इनका है कहना

बदलते दौर में जहां एजुकेशन पॉलिसी बदली हैं वहीें प्रतियोगिताओं का दौर बढ़ने से अभिभावक स्टेट्स सिंबल के पीछे भागने लगे हैं। बच्चों से सिर्फ अच्छे मा‌र्क्स लाने की अपेक्षाएं रह गई हैं। ऐसे में बच्चे भी मशीन की तरह पढ़ते हैं और संस्कार जैसी चीजें पीछे छूटती जा रही हैं।

सतीश शर्मा, प्रिंसिपल, मिलेनियम पब्िलक स्कूल

बच्चों में अब सिर्फ प्रतियोगिता की भावना ही देखी जा रही हैं। पैरेंट्स खुद आकर कहते हैं कि बस बच्चे के नंबर अच्छे आने चाहिए। आधे-आधे नंबर का कॉम्पीटिशन हैं। ऐसे में स्कूल भी पॉलिसियों के आगे बेबस हो जाते हैं। पैरेंट्स को भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए।

संजय जैन, प्रिंसिपल, प्रेजिडेंसी पब्लिक स्कूल

पुराने वक्त में टीचर्स बच्चों के साथ-साथ उनकी फैमिलीज से भी कनेक्ट होते थे। अभिभावकों के साथ उनके रिलेशन घरेलू हो जाते थे। यहां तक कि कई बार शिक्षक बच्चों के घर पर चाय पीने भी चले जाते थे। अब वक्त बदल गया है।

मीरा, अिभभावक

अब स्थितियां बदल गई हैं। शिक्षक व अभिभावकों में एक लकीर खींच गई हैं। अब सब कुछ प्रोफेशनल हो गया है। टीचर्स और पैरेंट्स में भी संवाद खत्म हाे गया है।

पंखुड़ी, अभिभावक

छोटी क्लास के बच्चों को पढ़ाने के लिए पढ़ाई को रोजमर्रा में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं से कनेक्ट करके उन्हें पढ़ाया जाता है। जबकि बड़ी क्लासेज में पढ़ाई को मा‌र्क्स से कनेक्ट करके पढ़ाया जाता है। इससे बच्चों में सामाजिक मूल्यों को समझने की क्षमता घटती जाती है। साथ ही बच्चों में सही-गलत का फैसला लेने की समझ भी खत्म होती जाती है। पैरेंट्स, स्कूल प्रशासन और शिक्षकों का यह दायित्व है कि बच्चों को अपनी संस्कृति और संस्कारों से जोडें़।

दीपिका शर्मा, काउंसलर व थैरेपिस्ट

Posted By: Inextlive