भावनाओं का ऐसा ज्वार चढ़ता है कि सोचने-समझने की शक्ति भी जाती रहती है. लाइक्स डिसलाइक्स और झन्नाटेदार कमेंट्स देखकर तो कई बार ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया की कांव-कांव कहीं कोई युद्ध न करवा दे.

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी. एक गांव में एक बच्चा रहता था. बड़ा शरारती और चंचल. अक्सर अपनी बातों से गांव वालों को बेवकूफ  बना दिया करता था. गांव वाले उससे तंग आ चुके थे, पर कोई तरीका नहीं मिल रहा था उसे सबक सिखाने का. एक सुबह लोगों ने देखा, कि वो बच्चा अपने कान पर हाथ रखकर रोता हुआ जा रहा है. एक व्यक्ति ने पूछा, ‘क्या हुआ रे, क्यों भांय-भांय कर रहा है सुबह-सुबह?’ रोते-रोते वो बोला, ‘कौवा मेरा कान काटकर ले गया.’ उस व्यक्ति ने ऊपर से तो अफसोस जताया, पर अंदर ही अंदर बड़ा खुश हुआ. चलो इस बदमाश को किसी ने तो सबक सिखाया.
बच्चा कुछ दूर आगे बढ़ा. फिर एक बुजुर्ग मिले. उन्होंने भी पूछा, और रोने का कारण पता चलने पर अफसोस जताया. बुजुर्ग भी बच्चे के सताए हुए थे, इसीलिए चेहरे पर दुख था, लेकिन मन में उनके भी लड्डू फूट रहा था. इसी तरह कई लोग उसे मिले और खुश होते हुए आगे बढ़ गए. मगर किसी ने ये तहकीकात करने की जरूरत नहीं समझी कि कौवा वाकई उसका कान ले गया है या ये उसकी एक और शरारत है बस उसे सजा मिलने की खुशी मनाते हुए निकल गए. उधर, बच्चा भी मन ही मन खुश हो रहा था कि उसने एक बार फिर पूरे गांव को बेवकूफ बना दिया. आप समझ गए होंगे, कि इस कहानी से क्या नैतिक शिक्षा मिलती है.

सोशल मीडिया में भी कुछ ऐसा ही हाल है आजकल. एक आदमी चिल्लता है, कि कौवा उसका कान ले गयाए, और तमाम लोग कौवे को कोसने लगते हैं. आदमी से ये नहीं कहते, ‘भैया एक बार अपना कान तो चेक कर लो.’ जब क्लास में शरारत करने पर मास्टर साहब ने कई साल तक कान खींचा, तब तो कान उखड़ा नहीं. अब कौवा कैसे कान खींचकर ले जा सकता है. कहानी यहां पर ही नहीं रुकती. फिर सब तथाकथित इंटेलेक्चुअल्स, पॉलिटिशियंस, थिंकर्स उस ख्याली कौवे की बखिया उधेडऩे में लग जाते हैं.
कोई कहता है कि वो कौवा पड़ोसी मुल्क से आया था. तो कोई उस कौवे की पैदाइश चीन बताता है. कुछ लोग तो कौवे के तार सीधे आतंकवाद से भी जोड़ देते हैं. और कौवे की हरकत को देश की अखंडता और संप्रभुता पर सीधा हमला बताते हैं. सबसे ज्यादा प्रतिक्रियाएं राजनीतिक दलों की तरफ  से आती हैं, जो कौवे के खिलाफ खूब जहर उगलते हैं. फिर कौवे के खिलाफ लड़ाई सडक़ों तक पहुंच जाती है और कुछ अति-उत्साही सियासी दल मौके पर चौका मारते हुए रैली निकाल कौवे के खिलाफ  कड़ी कार्रवाई करने की मांग भी उठाने लगते हैं.
मजा तब आता है, जब उस कौवे की सच्चाई पता करने के लिए सरकार भी एक जांच आयोग गठित कर देती है. पर इतना तमाशा होने के बाद भी ये देखने की जहमत कोई फिर भी नहीं उठाता, कि बंदे का कान अपनी जगह पर है या नहीं. यही है सोशल मीडिया की रफ्तार, जिसके आगे गति का तीसरा नियम भी फेल हो जाता है.
न्यूटन ने कहा था, ‘एव्री एक्शन हैज एन इक्वल एंड ऑपोजिट रिएक्शन.’ यानि हर एक क्रिया के बराबर, किंतु विपरीत दिशा में एक प्रतिक्रिया जरूर होती है. मगर सोशल मीडिया में हर एक क्रिया के होने पर, उससे कई गुना ज्यादा तगड़ी प्रतिक्रिया उसी दिशा में होती है. भावनाओं का ऐसा ज्वार चढ़ता है, कि सोचने-समझने की शक्ति भी जाती रहती है. लाइक्स, डिसलाइक्स और झन्नाटेदार कमेंट्स देखकर तो कई बार ऐसा लगता है, कि सोशल मीडिया की कांव-कांव कहीं कोई जंग ना करवा दे. मगर फिर भी बात किसी के समझ में नहीं आती, और कौवे को कोसने की कवायद बदस्तूर जारी रहती है.
अब सुनने में आ रहा है, कि इस ख्याली कौवे से सरकार इतना परेशान हो चुकी है, कि सोशल मीडिया के पर कतरने की फिराक में है. पर कान को चेक करने का टाइम अभी भी किसी के पास नहीं है. और इस गफलत में कहीं ऐसा ना हो, कि वाकई कोई कौवा आ जाए और सचमुच कान काटकर उडऩ छू हो जाए.
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मनोज वशिष्ठ

Posted By: Surabhi Yadav