एक बार फोक पर भी तो करें फोकस
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-स्टूडेंट्स का ग्रुप गांव-गांव घूमकर फोक सांग एंड डांस पर कर रहा है काम vikash.gupta@inext.co.in ALLAHABAD: बड़े बड़े मंचों पर वक्ता अपनी संस्कृति को सहेजकर रखने की अपील तो करते हैं। लेकिन हकीकत के धरातल पर लोककलाओं को वाजिब सम्मान नहीं मिल रहा। ऐसे में स्टूडेंट्स के एक ग्रुप ने लोककलाओं को पहचान दिलाने के लिए इन्हें खोजने का बीड़ा उठाया है। उनकी कोशिश है कि इन कलाओं का कुछ इस तरह से मॉडर्न किया जाये, जिससे ये लोगों के बीच अपनी पहचान बना सकें। लोक कलाओं का डॉक्यूमेंटेशनमहात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों ने इस दिशा में मिलकर काम शुरू किया है। ग्रुप में विवेक रंजन सिंह, अमित श्रीवास्तव, सुमित पांडे, सत्यम लभेरिया शामिल हैं। इनके द्वारा लोककला और लोककलाओं का डॉक्यूमेंटेशन किया जा रहा है। ये छात्र गांव-गांव जाकर लोक गीत संगीत में पारंगत लोगों से बातचीत कर रहे हैं.साथ ही इनका ऑडियो-वीडियो भी बनाया जा रहा है।
ढूंढ-ढूंढ कर बातचीतयह ग्रुप जौनपुर महाराजगंज निवासी अवधी आल्हा सम्राट फौजदार सिंह से मिला। यूं तो फौजदार सिंह आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं, लेकिन उनका साफ कहना है कि लोकगीत के माध्यम से वे पैसा कमा पाने की स्थिति में नहीं हैं। छात्र अमेठी के शहरी गांव निवासी महराज मौर्या और दरगाही मौर्या से भी मिले हैं। ये दोनों ही बिरहा गायन का काम करते हैं। लेकिन आज सब्जी बेचकर जीवन यापन कर रहे हैं। छात्रों ने बिरहा की छोटी विद्या शायरी के मास्टर हारीपुर निवासी रामराज यादव से भी मुलाकात की।
गांव से कनेक्टिविटी का अच्छा माध्यम छात्रों ने बताया कि उन्होंने शहरी गांव जाकर कजरी गाने वाली कुछ महिलाओं से बात की तो पाया कि आज कलाकार जिस तरह कजरी गायन करते हैं, वह उसका वास्तविक रूप नहीं है। महिलायें बड़ी-बड़ी लाइनों में जो कजरी गाती हैं। उसे आम आदमी के लिये दोहरा पाना ही मुश्किल काम है। विवेक रंजन सिंह कहते हैं कि आज भी गांवों में लोकगीत और नृत्य काफी प्रचलित है। पहले की ही तरह सरकार की योजनाओं को अगर इनके माध्यम से गांव के लोगों तक पहुंचाया जाये तो ग्रामीण सरकार की प्लानिंग को न केवल बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। बल्कि सरकार से सीधे कनेक्ट भी हो सकते हैं। इन बातों पर करें गौर -धोबिया नृत्य धोबी करते हैं और कहार कहरवा गीत गाते हैं -फागुन के महीने में फगुआ गाया जाता है। -चैत्र में गर्मी की शुरूआत में गेंहू कटाई के समय ग्रामीण चैता गाते हैं।- वहीं जून-जुलाई में धान लगाते समय अवधी की लाइन गाना प्रचलित तरीका है।
-उदाहरण के रूप में पिया धनवा लगाय द बेराम बाटीं यानि महिलायें पति से कहती हैं धान लगा दें क्योंकि वो बीमार हैं। - इसी तरह बरसात के दिनों में जब पुरुष खेतों में काम करके थक जाते हैं तो उनकी चेतना जगाने के लिये आल्हा गाया जाता है। - शादी के समय या किसी महिला को प्रसव पीड़ा होने पर उसकी आवाज घर से बाहर न जा सके। इसके लिये महिलायें सोहर गाती हैं। मंगनी के कुर्ता, मंगनी के धोतीविवेक रंजन बताते हैं कि आज भी गांवों में विवाह समारोह में तिलक के मौके पर गारी प्रसिद्ध है। इसके माध्यम से महिलाएं वर पक्ष के सामने अपनी बात रखते हुए कहती हैं 'हथिया-हथिया सोर कइला, गदहो ना ले अइला हो, मंगनी के कुर्ता, मंगनी के धोती, पहिन के सारे अइला हो.' इसका मतलब बताते हुए उन्होंने कहा कि महिलाएं वर पक्ष को दुहाई देते हुए कहती हैं कि शादी में बड़ी-बड़ी चीज के साथ आने का दावा किया था। लेकिन आए तो मंगनी का कुर्ता और मंगनी की धोती पहनकरइसपर वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को कुछ न कुछ अपनी तरफ से देकर उन्हें संतुष्ट किया जाता है।
कॉलिंग यह धारणा बन चुकी है कि लोकगीत समझ में नहीं आते। लेकिन पॉप संगीत और रैपर सिंगर के सांग भी तो समझ में नहीं आते। हमें जरूरत है कि हम लोक गीत को नये कलेवर में पेश करें। इसके लिये हमने शुरूआत कर दी है। -विवेक रंजन सिंह जरूरत है कि सरकार लोक कलाकारों को प्रमोट करे। यूनिवर्सिटी और कॉलेज लेवल पर इसके सेंटर खोले जाएं। लोक कलाओं को लोगों के बीच पॉपुलर बनाने का काम युवा ही कर सकते हैं। गांव में आज भी इनमें लोग रस ढूंढते हैं। -अमित श्रीवास्तव लोक गीत संगीत में कई ऐसे शब्द हैं। जिनमें हंसाने, रुलाने और व्यंग्य करने का सामर्थ्य है। युवा आगे आएं और अपने तौर-तरीकों से इसे लोगों के बीच लायें तो इसी में बड़े नाम पैदा हो सकते हैं। सुमित पांडे गायन के अलग-अलग प्रकार में इतना रस भरा पड़ा है कि इसे समझने की जरूरत है। बस इसे वर्तमान से जोड़कर लोगों तक पहुंचाने की जरूरत है। इसे किसी क्षेत्र विशेष में बांधकर रखना भी ठीक नहीं है। -सत्यम लभेरिया