सोशल मीडिया पर आजकल एक नया ट्रेंड चला है। खिलाड़ी की जाति देखने का। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण खेल और खिलाड़ी के लिए कुछ नहीं हो सकता कि उसकी उपलब्धियों को जाति के चश्मे से तौला जाए। ताजा मामला सुरेश रैना का है। बातचीत में स्वाभाविक चर्चा के दौरान रैना के मुंह से निकल गया कि मैं ब्राहमण हूं तो जाति के ठेकेदारों ने रैना के खिलाफ सोशल मीडिया पर बवंडर खड़ा कर दिया और माफी मांगने की मांग करने लगे।बदले में समर्थन में भी ट्रेंड चलने लगा मैं भी ब्राहमण। ये स्थिति दुखद है। राजनीति का विभाजन क्रिकेट की भावना को जख्मी कर रहा है।

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क्रिकेट की समझ रखने वालों को पता है कि क्रिकेट में जाति के आधार पर भेदभाव नहीं होता।पर ये भी नहीं कि रिटायरमेंट के बाद किसी से बात करने में भी कोई रोक है। क्रिकेट को लंबे समय से देखने वाले बता देंगे कि एक समय क्षेत्रवाद था क्रिकेट में लेकिन जाति और धर्म के नाम पर कभी भी कोई भेदभाव नहीं हुआ। स्वाभाविक रूप से ही क्रिकेट में जातिगत विभाजन नहीं इसका मतलब ये नहीं कि टीम इंडिया में खेला व्यक्ति सदैव के लिए जाति का त्याग कर देगा। जाति व्यक्तिगत मामला है और उससे उसके क्रिकेट जीवन का कोई लेना देना नहीं। जातीय चश्मे से क्रिकेट को देखने वालों का सबसे बड़ा तर्क विनोद काम्बली हैं। ये लोग काम्बली को हथियार की तरह बार बार पेश करते हैं। उनका मानना है कि काम्बली को दलित होने के कारण पर्याप्त मौके नहीं मिले जबकि सचिन तेंदुलकर को ब्राहमण होने का लाभ मिला। काम्बली को ही रैना के मामले में भी उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है इसलिए इस झूठे तर्क का खोखलापन साबित करना जरूरी है।

दावों में कितनी असलियत
पहले रैना से काम्बली की तुलना की हकीकत देख लेते हैं। रैना को निशाना बनाने के लिए काम्बली के रिकॉर्ड सामने रखने वालों का तर्क है कि काम्बली ने 17 टेस्ट में 54.20 के औसत से 1084 रन बनाए जिसमें 2 दोहरे शतक ,चार शतक और 3 अर्ध शतक शामिल हैं जबकि रैना ने 18 टेस्ट में 26.48 के औसत से 768 रन ही बनाए जिसमें 1 शतक और 7 अर्ध शतक हैं। रैना से सिर्फ जाति को कारण नफरत करने वालों का इन आंकड़ो को पेश करने के पीछे दो ही उद्देश्य संभव है। एक कि रैना को काम्बली से खराब खिलाड़ी साबित करना या दूसरा ये साबित करना कि बेहतर रिकॉर्ड के बावजूद काम्बली ने एक टेस्ट रैना से कम खेला इसलिए उनके साथ अन्याय हुआ और रैना को ब्राहम्ण होने का लाभ मिला।
अब इन दोनों दावों की असलियत जानते हैं।

आंकड़े कभी झूठ नहीं बोलते
रैना कभी भी टेस्ट मैच के स्थापित खिलाड़ी बन ही नहीं पाए..सिर्फ उनके टेस्ट के आंकड़े दिखाना और वन डे की बात न करना बेईमानी है।रैना लिमिटेड ओवर्स के विशेषज्ञ खिलाड़ी थे टेस्ट के नहीं। रैना ने 226 वन डे में 35.31 के औसत से 5615 रन बनाए। वन डे करिअर में उनका स्ट्राइक रेट 93.50 का है जो बहुत शानदार है। इस दौरान रैना ने 5 शतक और 36 अर्धशतक बनाए।विनोद काम्बली ने 104 वन डे में 32.59 के औसत से 2477 रन बनाए। काम्बली का स्ट्राइक रेट 71.94 रहा।काम्बली ने वन डे में 2 शतक और 14 अर्धशतक बनाए। स्पष्ट है कि वन डे में रैना काम्बली से बहुत आगे हैं लेकिन चालाकी के साथ इसे छुपा कर सिर्फ टेस्ट के आंकड़ों के आधार पर रैना को कमतर खिलाड़ी साबित करने की शर्मनाक कोशिश की गई।

काम्बली क्यों बाहर हुए टीम से
अब जरा इस दावे को भी परख लेते हैं कि काम्बली बेहतर टेस्ट रिकॉर्ड के बावजूद रैना से एक टेस्ट कम क्यों खेले। काम्बली के टेस्ट करिअर को समझने के लिए उसे गहराई से देखना होगा।टेस्ट में काम्बली की मुख्य सफलताएं करिअर के शुरुआती दौर की हैं जब भारत की पाटा विकेटों पर उन्होंने जिम्बाब्वे और इंग्लैड के खिलाफ खूब रन बनाए। काम्बली के कुल टेस्ट रन 1084 में 544 सिर्फ इंग्लैंड और जिम्बाब्वे के खिलाफ 1993 की सीरीजों में ही बना दिए गए थे। अगर इसमें श्रीलंका के खिलाफ उनके 393 रन जोड़ दिए जाएं जो 1994 तक वो बना चुके थे तो 1084 में से 937 रन खप जाते हैं। यानि बाकी जितने भी मौके काम्बली को मिले उसमें वो कुल मात्र 147 रन बना सके। 1993 में खेले 7 टेस्ट में जहां काम्बली ने 113.28 के औसत से 793 रन बना लिए थे वहीं 1994 के 7 टेस्ट में मात्र 21.45 के औसत से 236 रन ही बना सके।1995 में 3 मैच की दो पारियों में काम्बली ने कुल 55 रन बनाए। अब काम्बली के टेस्ट करिअर के अंतिम दौर की पारियों के स्कोर जान लाजिए जिसके बाद वो टेस्ट टीम से बाहर हुए।28,DNB,27,DNB,18,0,0,6,40,0,9,19

रैना और काम्बली का क्रिकेट करियर
स्पष्ट है काम्बली ने अंतिम के 7 टेस्ट में कुल 147 रन बनाए। इस प्रदर्शन पर कैसे किसी को टीम में रखा जा सकता है। लेकिन जबरदस्ती ये राग गाया जा रहा है कि वो दलित थे इस कारण उन्हें मौके नहीं मिले। रैना के काम्बली से एक टेस्ट ज्यादा खेलने की वजह ये है कि वो लंबे समय तक टीम इंडिया की वन डे टीम में रहे थे। रैना 2005 से 2018 तक करीब 13 साल वन डे खेले हैं। लगातार टीम में नहीं रहे लेकिन इंटरनेशनल क्रिकेट खेलते रहे। ऐसे में अच्छा फार्म होने पर टेस्ट में बीच बीच में मौका मिलना स्वाभाविक है। फिर भी टेस्ट में उन्हें ज्यादा मौके नहीं मिले।

सचिन बनाम काम्बली का मामला
मैं कोई काम्बली का विरोधी नहीं बल्कि स्पिन के खिलाफ उनकी बैटिंग का प्रशंसक रहा हूं।काम्बली का फुटवर्क मुझे बहुत पसंद था और शारजाह में शेन वार्न की गेंदों पर लगाए उनके छक्के बेहतरीन थे। काम्बली की कमी निकालना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा लेकिन क्रिकेट में विध्वंसक जातिवादी विभाजन थोपने की साजिश का पर्दाफाश करने के लिए मुझे ये करना पड़ रहा है। अब सचिन बनाम काम्बली का मामला समझते हैं। ये झूठ है कि काम्बली को दूसरा मौका नहीं मिला। मात्र 17 टेस्ट और 104 वन डे के करिअर में काम्बली को 9 बार कम बैक का मौका दिया गया।पहला कम बैक 1992 विश्व कप : 4 मैच में सर्वाधिक स्टोर 24 आखिरी मैच जो 1999 में उन्होंने भारत के लिए खेला उसमें उनका स्कोर 14 था।

तेंदुलकर जाति से नहीं टैलेंट से बने भगवान
दूसरा झूठ ये कि सचिन के जीवन में 9 बुरे दौर आए लेकिन मौका दिया गया। सच ये है कि 24 साल लंबे करिअर में सिर्फ 9 बार जिसका दौर खराब हो उसे कौन हटाएगा।वो खुद के स्तर से खराब दौर थे बस।1992 के ऑस्ट्रेलिया दौरे के बाद से सचिन भारत के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज बन गए थे और बाद में दुनिया के बेस्ट।जिसे ब्रेडमैन अपने जैसा बताएं, जिसे गॉड ऑफ क्रिकेट कहा जाए,जिसके बारे में विरोधी खिलाड़ी ऐसा सोचते थे “ मैंने ईश्वर को देखा है, वो टेस्ट में भारत के लिए नम्बर 4 पर बल्लेबाजी करता है”:मैथ्यू हेडन

क्रिकेट की समझ वाला सब जानता है
तीसरा झूठ ये कि काम्बली का औसत सचिन से ज्यादा है।सच ये है कि काम्बली का वन डे का औसत 32.79 है व स्ट्राइक रेट 71.94 है जबकि सचिन का वन डे का औसत 44.83 है 86.24 स्ट्राइक रेट के साथ 18 हजार से ज्यादा रन के बावजूद.काम्बली ने 104 वन डे खेले हैं ऐसा नहीं कि उन्हें पर्याप्त मौका नहीं दिया गया।हां काम्बली का टेस्ट औसत 54.20 है जबकि सचिन का 53.79 है लेकिन काम्बली ने मात्र 17 टेस्ट खेले और 1084 रन ही बनाए जिसमें से दो डबल सेंचुरी हैं जो बेजान विकेट पर धारहीन गेंदबाजी वाली इंग्लैंड और जिम्बाब्वे के खिलाफ थीं.सचिन ने दुनिया भर के मैदानों में 200 टेस्ट खेलकर 15921 रन बनाए हैं..41 के औसत में अंतर पर 14 हजार रन,183 टेस्ट का फर्क है।जरा भी क्रिकेट की समझ वाला जान सकता है दोनों के औसत की तुलना भी नहीं संभव।

झूठ को बेनकाब किया जाना जरूरी
काम्बली से मेरा कोई विरोध नहीं लेकिन इस झूठ को बेनकाब किया जाना जरूरी है कि जाति के कारण विनोद से भेदभाव हुआ न तो रमाकांच अचरेकर ने कोई भेद किया दोनों शिष्यों में न सचिन ने ऊंचाई पाने के बाद भी विनोद को कभी नीचा दिखाया।ये सिर्फ जातिवादी महामंडलेश्वर हैं जो राजनीति का जहर क्रिकेट में उड़ेलने की कोशिश कर रहे हैं।क्रिकेट की सतही समझ वाला ही कहेगा कि काम्बली टैलेट में सचिन के बराबर थे.काम्बली का जो भी अच्छा प्रदर्शन रहा वो घरेलू/ उपमहाद्वीपीय प्रकृति की पिचों पर रहा।वो कभी तेज/उछाल भरी पिचों पर अच्छा खेल नहीं पाए।काम्बली का फुटवर्क बहुत अच्छा था इसलिए वो स्पिन के बेहतरीन खिलाड़ी थे लेकिन बैक फुट पर बाउंसी गेंद खेलने में कमजोर थे अगर वो पाटा पिच न हो।काम्बली के ड्राइव अच्छे थे लेकिन हुक/पुल सचिन के आसपास नहीं था जो उछाल वाली पिचों पर काम आए।

झूठे नैरेटिव मत गढ़ें
काम्बली अनुशासित रहे होते तो निश्चित ही उनकी उपलब्धियां ज्यादा होतीं लेकिन तब भी वो सचिन के आसपास नहीं होते क्योंकि टैलेंट में अंतर था खास कर स्विंग /बाउंसी कंडीशंस के लिए तकनीक का अंतर।मुझे खेद है कि रिटायर हो चुके खिलाड़ी का इतना गहन विश्लेषण मैं कर रहा हूं लेकिन जातिवाद के झूठ को काटने के लिए ये कड़वी दवाई पीनी ही पड़ेगी।जातिवादी ठेकेदारों से निवेदन है कि वो विनोद काम्बली को हथियार बनाना बंद करें।क्रिकेट और खिलाड़ियों पर मेहरबानी होगी।क्रिकेट में जातिवाद नहीं है। झूठे नैरेटिव गढ़ कर खिलाड़ियों को असहज न करें।

(लेखक @umangmisra दैनिक जागरण आईनेक्स्ट में एसोसिएट एडिटर हैं।)

Posted By: Inextlive Desk