- पैरेंट्स का बैकग्राउंड सपोर्ट बढ़ा रहा है नाबालिग ड्राइवर्स के हौसले

- इस उम्र में हाई रिस्क टेकिंग एटीट्यूड की वजह से नहीं होती कोई फिक्र

- वाहवाही लूटने के लिए भी बेफिक्र होकर फर्राटा भरते हैं नाबालिग

GORAKHPUR: रफ्तार का कहर हर रोज सड़कों पर नजर आता है। आए दिन रफ्तार की जद में आने से लोग अपनी जान गंवा रहे हैं। नाबालिग हाथों में गाडि़यां इस रफ्तार के कहर की सबसे बड़ी वजह है। चंचल मन और बढ़ती उम्र इन बच्चों को न सिर्फ मौत के मुंह में ढकेल रहा है, बल्कि इससे दूसरे घरों का भी चिराग बुझ जा रहा है। नाबालिग होने के साथ ही लाइसेंस न होने के बाद भी वह गाडि़यों संग फर्राटा भरते हैं। ऐसा क्यों होता है? आखिर उनके मन में ऐसा क्या आता है कि आजाद परिंदों का चंचल मन सभी फिक्र छोड़कर रफ्तार में गाड़ी चलाने को मजबूर होता है। जब आई नेक्स्ट ने इस मुद्दे पर साइकोलॉजिस्ट से बात की, तो कई चौंकाने वाले फैक्ट्स सामने आए।

चंचल मन, नहीं कोई टेंशन

बच्चे जब 14 साल की उम्र में एंट्री करते हैं तो इस दौरान उनका मन बिल्कुल चंचल होता है। हर वक्त उनके मन में खुराफात की बरसात हुआ करती है। 18-19 साल की उम्र तक यह सिलसिला जारी रहता है। इस उम्र में उनके पास पढ़ाई के अलावा दूसरी कोई जिम्मेदारी नहीं होती, जिसकी वजह से उन्हें कोई भी टेंशन नहीं होती। वह अपनी जिंदगी के प्रति गंभीर नहीं होते और जो मन में आता है, वह करते हैं। इस दौरान वह जिद्दी भी होते हैं और पेरेंट्स की अनदेखी की वजह से उनके हौंसले भी बुलंद होते चले जाते हैं।

हाई रिस्क टेकिंग एटीट्यूड

डीडीयू गोरखपुर यूनिवर्सिटी के साइकोलॉजिस्ट डॉ। धनंजय की मानें तो इस उम्र में बच्चे बेफिक्र होते हैं। साथ ही उनके अंदर हाई रिस्क टेकिंग एटीट्यूड के साथ ही प्लेजर सिकिंग एटीट्यूड होता है। इसमें उन्हें किसी बात का डर नहीं होता। वहीं दोस्तों के साथ उनके रिलेटिव्स की वाहवाही उन्हें गैर जिम्मेदार बना देती है। वाहवाही पाने से वह और रिस्क उठाने लग जाते हैं। वहीं पेरेंट्स की अनदेखी और बैकग्राउंड सपोर्ट उन्हें और बल देता है। जिसकी वजह से वह रफ्तार में गाड़ी चलाने लगते हैं और कई बार उनके साथ हादसे हो जाते हैं।

पेरेंट्स हैं सबसे बड़े जिम्मेदार

इस समस्या के सबसे बड़े जिम्मेदार पेरेंट्स हैं। नाबालिग होने के बाद भी बच्चों को स्कूल और कोचिंग जाने के लिए पेरेंट्स गाड़ी दिलवा देते हैं। वह इस बात का बिल्कुल भी ख्याल नहीं करते कि वह जो कर रहे हैं, उससे कानून की धज्जियां उड़ रही हैं। मगर बस अपने बच्चे के प्यार में उन्हें कम उम्र में ही गाड़ी थमा देते हैं। ऐसे में पेरेंट्स का बैकग्राउंड सपोर्ट पाकर वह धड़ल्ले से गाड़ी चलाते हैं और कई बार यह गंभीर एक्सीडेंट की वजह बनते हैं।

जिम्मेदारों की लापरवाही

साइकोलॉजिस्ट डॉ। धनंजय कुमार ने बताया कि हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स की उम्र 14 से 18 के बीच ही होती है। पहली बात तो वह लाइसेंस पाने के हकदार ही नहीं होते, लेकिन दलालों की सक्रियता और पैसे के जोर से वह नाबालिग का लाइसेंस बनाने में भी कामयाबी हासिल कर लेते हैं। इसमें आरटीओ की सबसे बड़ी फॉल्ट यह है कि वह नाबालिग ड्राइवर्स का भी लाइसेंस जाने-अनजाने में जारी कर देते हैं। वहीं ट्रैफिक वाले भी कई बार सिर्फ वॉनिंग देकर उन्हें छोड़ देते हैं।

वर्जन

इस उम्र में बच्चों का मन काफी चंचल होता है। वह लॉ के प्रति गंभीर नहीं होते, साथ ही उनमें हाई रिस्क आरै प्लेजर सिकिंग एटीट्यूड भी होता है। वहीं पेरेंट्स का बैकग्राउंड सपोर्ट उन्हें और बढ़ावा देता है। पेरेंट्स को चाहिए कि वह अपने बच्चों को गाड़ी तभी सौंपे जब वह बालिग हो जाएं। वरना इस लापरवाही की उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

- डॉ। धनंजय कुमार, साइकोलॉजिस्ट, गोरखपुर यूनिवर्सिटी

Posted By: Inextlive