- भारतेंदु नाट्य अकादमी में तीन दिन तक चले जागरण संवादी ने ली विदा

- उलझते मुद्दों में सामंजस्य स्थापित कर वार्तालाप का संदेश

रुष्टयहृह्रङ्ख :

'ये जो घटने लगा है समाज में संवाद इसीलिए बेवजह बढ़ने लगे हैं विवाद.' थोड़ी बुराई है तो कुछ अच्छाई भी है, फिर किस बात की लड़ाई है? हर विषय पर एक सी राय जरूरी नहीं, असहमति के स्वर भी आने चाहिए। चुप्पी का प्रतिकार कर हर मुद्दे पर बात जरूरी है। बस इतना ख्याल रहे कि संवाद वहीं तक अच्छा जहां वो विवाद न बने। तीन दिन तक जागरण संवादी का सतरंगी मंच विचारों का रण बना रहा। मुद्दे उछले, वक्ता-श्रोता उलझे, विचार उमड़े और आखिरकार सार्थक संवाद की जीत हुई। इसी जीत में संवादी की सफलता भी खिलखिलाई।

जागरण संवादी के रूप में अभिव्यक्ति का जो बीज छह साल पहले रोपा गया था। अब वो विचार, विमर्श, तर्क-वितर्क, हां, ना की उर्वरा धरती पर फलने फूलने लगा है। ये एक ऐसा मोड़ है जहां हम विदा तो हो रहे हैं लेकिन अगले साल फिर मिलने के वादे के साथ। विदाई कोई भी हो, भावुक कर जाती है। जाने वाले की खलने वाली कमी सोचकर आंखों में नमी आ जाती है। मुंबई से आए दोस्त को विदा करने के बाद अगला दिन संवादी को विराम देने का था। हर विदाई की बेला को साहित्य, शिक्षा, सिनेमा, समाज और संगीत की मौजूदगी ने यादगार बना दिया। 'संघर्ष' से शुरू हुआ संवादी का अंतिम दिन हास्य और गीत की बौछार का अद्भुत अनुभव दे गया।

संवादी के तीसरे और अंतिम दिन की शुरुआत स्त्री साहित्य के संघर्ष के साथ हुई। संघर्ष से शुरू हुई बात ने स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का अंतर भी समझाया। सृजन ने समानता की भी चाह की। बात निकलकर आई कि स्त्री होना भी एक संघर्ष है। लिखना बड़ा कर्म है। साहित्य में स्त्री और पुरुष को अलग करके देखना और आंकना ठीक नहीं। सम्यक दृष्टि की जरूरत है। अगला सत्र लखनऊ विश्वविद्यालय पर केंद्रित रहा। लविवि आज उम्र के शतक की दहलीज पर है। यह वो पड़ाव है, जहां निश्चित तौर पर इसका आकलन होगा। आकलन हुआ भी, पर तमाम गौरव को समेटे इमारत की मौजूदा तस्वीर धूमिल निकली। कलम की जगह परिसर में खाकी और खादी के बढ़ते प्रभाव ने शिक्षा व्यवस्था और नीति निर्धारकों को कठघरे में खड़ा किया।

लविवि से बात निकलकर ¨हदी पर बेस्टसेलर का प्रभाव पर आकर टिकी। युवा कलम ने इसके लाभ गिनाए तो दर्शकदीर्घा से आवाज उठी कि साहित्य फास्ट फूड नहीं हो सकता। अगला सत्र यथार्थ और कल्पना को समझने का था और चर्चा साहित्यिक सत्संग बन गई। पांचवें सत्र में इतिहास लेखन की चुनौतियां सामने थीं। कहा गया इसके लिए कल्पना नहीं यथार्थ चाहिए। फिर साहित्य और सिनेमा पर विमर्श में संवाद ही प्रमुख रहा। गहन और गंभीर चिंतन से भरा दिन हास्य और गीत के साथ खुशनुमा मोड़ पर छोड़ गया।

Posted By: Inextlive