आखिरकार वो दिन आ ही गया जिसका इंतजार करते करते खेल प्रेमियों की एक पीढ़ी की उम्र बीत गई। भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक के सेमीफाइनल में पहुंच गई। हार्दिक सिंहगुरजंत सिंह और दिलप्रीत सिंह। इन तीन सिंहों ने ग्रेट ब्रिटेन को घर वापस भेज दिया।

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भारत ने ग्रेट ब्रिटेन को 3-1 से हरा कर सेमीफाइनल में जगह बना ली। दिलप्रीत सिंह ने गोलकीपर के पैरों के बीच से गेंद निकाल कर बेहतरीन गोल करते हुए भारत को बढ़त दिलाई तो गुरंजत ने उससे भी शानदार गोल करके बढ़त दो गुनी कर दी। उसके बाद कमाल किया भारत के डिफेंडर्स और गोलकीपर श्रीजेश ने। पहले और दूसरे क्वार्टर में भारत आगे रहा लेकिन तीसरे और चौथे क्वार्टर में ग्रेट ब्रिटेन में बहुत दबाव बना दिया था। लगातार मिलते पेनाल्टी कॉर्नर्स के बीच एक गोल करके ग्रेट ब्रिटेन ने मामला नजदीकी कर दिया था।

सेमीफाइनल में पहुंचकर रचा इतिहास
भारत के लिए सबसे मुश्किल पल वो थे जब पांच मिनट के लिए कप्तान मनप्रीत सिंह को रेफरी ने विवादास्पद ढंग से पीला कार्ड दिखा कर बाहर भेज दिया और भारतीय टीम को दस खिलाड़ी से उस दबाव को झेलना पड़ा जिसे 11 से झेलना कठिन था। रेफरी के फैसले भारत के खिलाफ हो रहे थे। लेकिन ऐसे कठिन समय में डिफेंडर्स और गोलकीपर श्रीजेश ने मानसिक दृढ़ता दिखाई और हार्दिक सिंह ने शानदार गोल करके भारत की बढ़त 3-1 कर दी और ये तय कर दिया कि भारत सेमीफाइनल में पहुंचेगा।

1972 के बाद पहली बार ये दिन आया
1972 के बाद पहली बार ये दिन आया है जब भारत ओलंपिक सेमीफाइनल में है।इस बीच न जाने कितने अच्छे खिलाड़ी आए लेकिन टीम गेम में बिना ओलंपिक सेमीफाइनल खेले रिटायर हो गए। हॉकी विश्व कप भी आखिरी बार भारत 1975 में जीता था। 1980 के बाद भारतीय हॉकी का धीरे-धीरे पतन हुआ और हमने वो दिन भी देखे जब भारत 1986 विश्व कप में आखिरी स्थान पर आया जबकि टूर्नामेंट के बेस्ट खिलाड़ी भारत के मोहम्मद शाहिद थे। 2008 में हॉकी में ओलंपिक के लिए क्वालिफाई भी नहीं कर सका भारत। वहां से उठकर फिर से ओलंपिक सेमीफाइनल में पहुंचने की कहानी रोमांचक है। 1980 के बाद से जमाना ही भारत की हॉकी का दुश्मन रहा है।

नए नियमों से भारतीय हाॅकी का हुआ था पतन
भारतीय हॉकी को सबसे पहले नियमों से मारा गया। लगातार ऐसे नियम बनाए गए जिससे कला के ऊपर पावर को बढ़त मिले। योरोपीय देश स्किल में भारत-पाकिस्तान की बराबरी नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने खेल ही बदल दिया ताकि स्किल के ज्यादा कीमत पावर की हो जाए। एस्ट्रो टर्फ का प्रयोग इसी दिशा में लागू किया गया फैसला था। लेकिन भारतीय खिलाड़ियों ने उससे भी सामंजस्य बैठा लिया। मो शाहिद और धनराज पिल्लई की स्किल से एस्ट्रो टर्फ भी योरोपीय टीमों को न बचा पाया। लेकिन जब ये नियम लागू किया गया उस समय भारत में एस्ट्रो टर्फ सीमित संख्या में थे। खिलाड़ी नेशनल लेवल तक तमाम मैच घास के मैदान में खेल कर अंतरराष्ट्रीय मैचों में एस्ट्रो टर्फ से एडजस्ट करता था। एस्ट्रो टर्फ ने भारतीय हॉकी को पीछे किया। लेकिन दुनिया में हॉकी के कर्ताधर्ता यहीं नहीं रूके वो तमाम नियम बनाते गए जिससे हॉकी में पावर का महत्व बढ़ा और कलात्मकता कम हुई।

कला की जगह ताकत को तरजीह
योरोपीय खिलाड़ी कद काठी में एशियाई खिलाड़ियों पर भारी थे इसलिए हॉकी को ताकत का खेल बनाने के लगातार प्रयास हुए। ऑफ साइड का नियम खत्म कर दिया गया। लंबे पास देकर आगे खड़े किसी तेज धावक पहलवान टाइप खिलाड़ी को छूट मिली कि वो गेंद लेकर दौड़ जाए और गोल धमक दे। खिलाड़ियों को छका कर गेंद आगे ले जाने की अनिवार्यता इससे खत्म हुई। पेनाल्टी कार्नर का नियम और उनमें परिवर्तन भी कोई कम मुसीबत नहीं रहा। पहले बावलेंडर टाइप बॉडी बिल्डर पेनाल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ झोंक देते थे स्टिक से मिसाइल फिर ड्रैग फ्लिकर आ गए। किस्मत भी खराब रही जो जुगराज सिंह और संदीप सिंह जैसे बेहतरीन ड्रैग फ्लिक करने वाले दुर्घटनाओं के शिकार हुए। पहले 35 मिनट के दो हाफ होते थे उसे 15 मिनट के चार में बदल दिया गया, सब्सटीट्यूट की कोई सीमा न रही। इस सबसे खेल पावर हॉकी में ही बदला। इन नियमों ने भारतीय हॉकी के लिए लगातार चुनौतियां बनाए रखीं।

राजनीति के चलते भी हुआ नुकसान
नई चुनौतियों से निपटने के चक्कर में दशकों तरह तरह के प्रयोग हुए। अपनी 5-3-2 की शैली छोड़ टोटल हॉकी ट्राई किया गया, हर कोच ने अपने हिसाब से प्रयोग किया। कोच के साथ खेल की शेली बदल जाती थी और खिलाड़ी एडजस्ट करने में ही हैरान रहता था। पतन के दौर की एक कहानी आंतरिक राजनीति भी रही। इंडियन हॉकी फेडरेशन 80 और नब्बे के दशक में पूरी मनमानी से चलाया गया। बाद में हॉकी इंडिया के साथ लंबे समय तक विवाद रहा। एक दौर ऐसा गुजरा जब कब कोई कोच बन जाए कब हटा दिया जाए पता नहीं चलता था।यही हाल खिलाड़ियों का था। मोहम्मद शाहिद जैसे खिलाड़ी को अंतिम के दस मिनट में उतारा जाता था।

चंद खिलाड़ी नहीं बदल पाए किस्मत
आईएचएफ की राजनीति के माहौल में टीम में भी राजनीति घुसी और एक समय ऐसा आया जब बार्सिलोना ओलंपिक के दौरान आरोप लगा कि खिलाड़ी अपने गुट के खिलाड़ी को ही पास देते हैं। लंबे समय तक भारतीय हॉकी अस्थिरता का शिकार रही। इस बीच धनराज पिल्लई, मुकेश कुमार जैसे बेहतरीन खिलाड़ी भी आए लेकिन चंद खिलाड़ी टीम गेम की तकदीर नहीं बदल सकते थे। जिसने वो दौर देखा है वो समझ सकता है कि कितने संघर्षों के बाद नियम, राजनीति, अभाव और उपेक्षा झेलकर भी भारतीय हॉकी खिलाड़ियों ने हार नहीं मानी। आज जब भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक में हुंकार भरी है तो ये सफलता सिर्फ उन खिलाड़ियों की नहीं जो टोक्यो गए हैं।

आज मिला है जीत का मौका
टोक्यो में लहराते तिरंगे पर उन तमाम खिलाड़ियों को भी हाथ मतबूती से जमे महसूस किए जाने चाहिए जिन्होंने भारतीय हॉकी को बुरे दौर में भी मरने नहीं दिया। सेमीफाइनल में भारत का मुकाबला बेल्जियम से है। भारत को ओलंपिक फाइनल में खेलने के लिए ये मैच जीतना है। टीम को खुद के और देश की जनता के साथ साथ धनराज पिल्लई जैसे उन खिलाड़ियों के लिए भी जीतना है जो सारी योग्यता के बावजूद अपने करिअर में ये दिन न देख सके। भारत को ओलंपिक गोल्ड के लिए अब सिर्फ दो मैच जीतने हैं। सेमीफाइनल के 60 मिनट और अगर फाइनल में पहुंचे तो और 60 मिनट। इन 120 मिनट में भारत के हॉकी वीर चाहें तो इतिहास रच सकते हैं। भारत की हॉकी को इंतजार रहेगा।

(लेखक @umangmisra दैनिक जागरण आईनेक्स्ट में एसोसिएट एडिटर हैं।)

Posted By: Inextlive Desk