इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा, 'न्यूनतम दंड न होने की स्थिति में सजा पर जज का विवेकाधिकार'

PRAYAGRAJ: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि किसी मामले में यदि अपराध की अधिकतम सजा का नियम तय है। लेकिन, न्यूनतम सजा का प्रावधान तय नहीं है, तब अपराध के तथ्यों, साक्ष्यों, परिस्थितियों व औचित्य पर विचार करके न्यायाधीश कोई भी सजा दे सकता है। धारा-420 में दंड के साथ जुर्माने की सजा का प्रावधान है, इसलिए केवल जुर्माना लगाकर नहीं छोड़ा जा सकता। आरोपी को दोनों ही सजा देनी होगी। यदि अधिकतम के साथ न्यूनतम सजा तय है। तब न्यूनतम से कम की सजा नहीं दी जा सकती। लेकिन, जहां न्यूनतम सजा नहीं है वहां न्यायधीश अपने विवेक से सजा दे सकता है।

नौकरी का झांसा देकर की थी ठगी

यह आदेश जस्टिस सौरभ श्याम शमशेरी ने आशाराम यादव की दो साल की सजा व जुर्माने के खिलाफ दाखिल पुनरीक्षण याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दिया है। कोर्ट ने नौकरी लगवाने की लालच देकर पैसा हजम करने वाले की 28 दिन की जेल में बिताने की अवधि को पर्याप्त माना। लेकिन, जुर्माने की धनराशि 50 हजार से बढ़ाकर एक लाख रुपये कर दिया। कहा कि जुर्माने का भुगतान दो माह के भीतर पीडि़त वादी को किया जाय।

कर्नलगंज थाने में दर्ज हुई रिपोर्ट

प्रयागराज निवासी चिंतामणि दुबे ने एसएसपी से 15 मई 2002 को एक शिकायत की थी। बताया था कि उनके भाई शेषमणि दुबे को नौकरी का झांसा देकर आशाराम यादव ने 53 हजार रुपये ले लिया। लेकिन, नौकरी नहीं दिला पाए। पैसा मांगने पर किश्तों में 12 हजार रुपये वापस किया। बाकी 41 हजार रुपये हड़प लिया। एसएसपी के निर्देश पर कर्नलगंज थाना में एफआइआर दर्ज हुई। पुलिस ने कोई अपराध न पाते हुए मामले में अंतिम रिपोर्ट लगा दी। परंतु कोर्ट ने मामले का संज्ञान लेकर समन जारी करके आरोपी को पांच साल जेल और दो लाख रुपये जुर्माना की सजा दी। सत्र न्यायालय ने सजा घटाकर दो साल कर दिया और जुर्माना 50 हजार रुपये लगाया। हाईकोर्ट में उसे चुनौती दी गई थी। याची का कहना था कि उसने 28 दिन जेल में बिताये हैं, उसकी उम्र 65 साल है। मुकदमा 19 साल तक चला। अब सहानुभूति पूर्वक विचार करके भोगी गयी सजा को पर्याप्त मानते हुए जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाय।

Posted By: Inextlive