- भारी बस्ते के मुद्दे पर दैनिक जागरण आई नेक्स्ट के पैनल डिस्कशन में पेरेंट्स, प्रिंसिपल और पेरेंट्स एसोसिएशन ने रखी अपनी राय

- बोले, 'बस्ते के बोझ' और स्कूल्स की मनमानी के दबाव में दबते जा रहे पेरेंट्स

बरेली : प्राइवेट स्कूल्स के तौर-तरीके सिरदर्द बनते जा रहे हैं। जहां एक ओर मनमानी फीस चुकाते-चुकाते पेरेंट्स की जेब ढीली होती जा रही है, तो वहीं दूसरी ओर उनके बच्चे बस्ते के बोझ तले दबते चले जा रहे हैं। भारी बस्ते से बच्चों की सेहत पर पड़ रहा असर पेरेंट्स के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है, लेकिन मजबूरी में वह इसे झेल रहे हैं। दैनिक जागरण आईनेक्स्ट ने इस ओर ध्यान देते हुए भारी बस्ते पर अभियान चलाया तो जो हकीकत सामने आई वह काफी चौंकाती है। सरकार की ओर से बस्ते के तय वजन की तुलना में तीन गुना से ज्यादा वजन बच्चे उठा रहे हैं। पहली क्लास हो या फिर बारहवीं, बच्चों के बस्ते का वजन दो से तीन गुना ज्यादा ही है। भारी बस्ते के मुद्दे पर हमने पेरेंट्स एसोसिएशन, पेरेंट्स, डॉक्टर और प्रिंसिपल के साथ पैनल डिस्कशन किया। इस दौरान समस्या और समाधान पर बात हुई। पेरेंट्स की मजबूरी सामने आई तो वहीं, स्कूल्स पब्लिशर्स को जिम्मेदार ठहराते दिखे।

- डॉ। सुविधा शर्मा, इंचार्ज, मनोविज्ञान विभाग, बरेली कॉलेज

भारी बस्ते से निजात दिलाने के लिए मैंने पहल की। एक ऐसा स्कूल शुरू किया है, जहां इन सब बातों का विशेष तौर पर ध्यान दिया जा रहा है। हम बच्चों को जरूरी कॉपी और किताबें ही घर ले जाने देते हैं। बाकी पढ़ाई के बाद स्कूल में ही जमा करा लेते हैं। इससे बच्चों के बस्ते का वजन कम रहता है और उन पर शारीरिक और मानसिक तौर पर जोर नहीं पड़ता है। इसी तरह की पहल करके बच्चों को बस्ते के भारी भरकम बोझ से मुक्त किया जा सकता है।

- उमंग कौशिक, स्कूल संचालक

बस्ते का वजन कम करना चाहें तो बिल्कुल हो सकता है, लेकिन यह करना ही नहीं चाहते। प्रॉफिट कम हो जाएगा। कमाई के चक्कर में इस पर विचार नहीं कर रहे हैं कि बच्चों की रीढ़ की हड्डी पर जोर पड़ रहा है। एक नेशनल सर्वे यह बताता है कि बच्चे चिड़चिड़े होते चले जा रहे हैं। सिलेबस अपडेट करने का मतलब नई किताब बढ़ाना नहीं बल्कि उसी किताब को अपडेट करना है। कंटेंट अच्छा करें। एडमिशन के बाद किताबों का सेट खरीदें जरूर पर खराब किताबें हटाकर स्कूल को ही दे दें।

- अंकुर कुमार सक्सेना, अध्यक्ष, पेरेंट्स एसोसिएशन

स्कूल के अंदर अभिभावक संघ होना बहुत जरूरी है, ताकि समस्याओं को सही जगह पहुंचाया जा सके। स्कूलों को हर महीने मेडिकल कैंप लगाना चाहिए। ताकि बच्चों की बैक बोन चेक की जा सके। किसी बच्चे को ज्यादा परेशानी तो नहीं हो रही है। पेरेंट्स और स्कूल जब साथ मिलकर चलेंगे तभी इस समस्या का समाधान निकलेगा। पेरेंट्स का अवेयर होना बहुत जरूरी है। मनमानी पर रोक लगनी चाहिए। यह बच्चे की सेहत का सवाल है।

- अपुल श्रीवास्तव, सेक्रेटरी, पेरेंट्स एसोसिएशन

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पब्लिशर्स बुक की सेल को बढ़ाने के लिए मोटे कवर और पन्नों वाली बुक दे रहे हैं। कॉपी भी मोटी छप रही है। इसे पतला किया जाना चाहिए। यह छोटी हो और क्वालिटी ठीक हो तो बस्ते का वजन कम होगा। बुक को दो पार्ट में डिवाइड करना होगा। इसके अलावा पानी की बॉटल को भरने का इंतजाम भी स्कूल कराए। इससे बच्चे खाली बॉटल लेकर आएंगे और कुछ वजन कम होगा। पेरेंट्स के साथ बैठकर बुक्स डिसाइड हों। यह एक अच्छा आइडिया है।

- योहान कुंवर, प्रिंसिपल, विद्या भवन पब्लिक स्कूल

किताबों को दो पार्ट में करना बेहतर होगा। मोटी किताबें होने की वजह से वजन बढ़ जाता है। बच्चों को सभी किताबें ले जानी पड़ती हैं। न ले जाने पर स्कूल में डांट पड़ती है। बच्चों को जो बैग दिलाएं, वह भी बहुत भारी न हों, क्वालिटी को देखें। वजह बढ़ने का एक कारण यह भी है कि बच्चे दो-दो बॉटल लेकर जाते हैं। अगर पानी स्कूल में ही भरकर दिया जाए तो काफी हद तक यह समस्या दूर होगी। किताबें वाकई में काफी मोटी होती हैं। कई किताबें तो काम की भी नहीं होतीं, फिर भी बच्चों को ले जानी पड़ती हैं।

- संजय अरोरा, कोआर्डिनेटर, पेरेंट्स एसोसिएशन

पेरेंट्स को ध्यान देना चाहिए। अगर पेरेंट्स अवेयर होंगे तो प्राइवेट स्कूल्स और पब्लिशर्स कोई भी अपनी मनमानी नहीं कर सकेगा। पूरी तरह से लूट खसोट मची हुई है। प्राइवेट स्कूल्स केवल अपनी सुविधा देख रहे हैं, उन्हें इससे मतलब नहीं कि बच्चों की सेहत पर क्या असर पड़ रहा है। मनमानी हो रही है। पेरेंट्स सब जानते हैं, पर मजबूरी में झेल रहे हैं। कई पेरेंट्स तो आवाज उठाना ही नहीं चाहते। प्राइवेट स्कूल्स के मनमानी भरे तौर-तरीकों के आगे वह झुक जाते हैं।

- आशीष गुप्ता, पेरेंट्स

बस्ते का वजन कम करने के कई तरीके हैं। अगर स्कूल्स इन्हें अपनाएं तो बच्चों को राहत मिल सकती है। जैसे कि टाइम टेबल को ठीक तरह से बनाया जाए। इससे कई किताबें अपने आप कम हो जाएंगी और वजह कम हो जाएगा। 8 पीरियड होते हैं। टाइम टेबल को चार-चार पीरियड में बांट दिया जाए। कॉपियां ज्यादा न बनवाएं। यह पुराना सिस्टम है। ज्यादा से ज्यादा नॉलेज दें। इससे बच्चों को ज्यादा कॉपी ले जाने की टेंशन नहीं रहेगी।

- डालिमा अग्रवाल

शिक्षा का कोई भी प्रारूप हो। एनसीईआरटी के आधार पर पाठ्यक्रम होता है। यह सब निश्चित है। सरकारी स्कूल्स की बात करें तो यह साढ़े तीन हजार के करीब हैं और प्राइवेट स्कूल्स 150 के करीब होंगे। भारी बस्ते की समस्या मुट्ठी भर स्कूलों की है। सरकारी स्कूलों में तो सिलेबस भी कम है और बस्ते का वजह भी हल्का है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या कहां है। सरकारी स्कूल तो आरटीई का पालन कर रहे हैं। लेकिन प्राइवेट स्कूल्स मनमानी कर रहे हैं। टाइम टेबल बनाएं, यूनिट को डिवाइड करें और उसी हिसाब से किताबें मंगाएं। सबसे बड़ी बात है कि पेरेंट्स को अवेयर होना होगा, वरना यह मनमानी चलती रहेगी।

- डॉ। अवनीश यादव, प्रिंसिपल, जीआईसी

भारी बस्ते की वजह से बच्चा शारीरिक और मानसिक तौर पर कमजोर होता जा रहा है। बच्चे चिड़चिड़े होते चले जा रहे हैं। वह स्कूल नहीं जाना चाहते। बैग का वजन कम करने से इन सबसे छुटकारा मिल सकता है। तीन साल तक बच्चे की लर्निग एज होती है। इसी समय उस पर बोझ डाल देना ठीक नहीं है। चार गुना ज्यादा वजन होने की वजह से उसकी रीढ़ की हड्डी पर जोर पड़ रहा है। हड्डियां इसी समय मजबूत होती हैं, लेकिन यह वजन उनकी सेहत के साथ खिलवाड़ है।

Posted By: Inextlive