- खाल और जकात के पैसों से चलते हैं मदरसे

- इस बार जानवर की कमी से मुश्किल होनी तय

- प्रशासन से मांग कर कुर्बानी कराने की मांग रहे हैं इजाजत

खाल और जकात के पैसों से चलते हैं मदरसे

- इस बार जानवर की कमी से मुश्किल होनी तय

- प्रशासन से मांग कर कुर्बानी कराने की मांग रहे हैं इजाजत

GORAKHPUR:GORAKHPUR: कुर्बानी के जानवर का चमड़ा (खाल) मदरसों को फायनेंस मैनेजमेंट में काफी मदद करता है। बच्चों की पढ़ाई और दूसरी जरूरतों को मदरसे इमदाद से ही पूरा करते हैं। जिले में करीब फ्00 मदरसे हैं, जिनमें महज क्0 को सरकारी अनुदान मिलता है। उलेमाओं की माने तो सभी मदरसों का दारोमदार कुर्बानी के चमड़े, ईद-उल-फित्र के सदका-ए-फित्र व जकात पर है, हालांकि कुछ लोग दीगर तरीके से भी मदरसों की मदद करते हैं। मगर इस बार लॉक डाउन की वजह से ईद में फित्रे का कलेक्शन सही तरह से नहीं हो सका, वहीं जकात भी हर साल के बराबर नहीं मिल सकी। अब रही-सही कसर बकरीद में पूरी हो रही है। इस बार अब तक जानवरों के आने का कोई इंतजाम नहीं हो सका है, जिसकी वजह से इस बार कुर्बानी भी कम होगी। मदरसे की आमदनी का कुछ हिस्सा बकरे और दीगर जानवरों की खाल से आता है, मगर कुर्बानी कम होने की वजह से इस पर भी इफेक्ट पड़ना तय है। इससे मदरसे के जिम्मेदार परेशान हैं और आमदनी के लिए अब दूसरे जरिए तलाश रहे हैं।

चलता है मदरसों का खर्च

मदरसा दारुल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के प्रधानाचार्य हाफिज नजरे आलम कादरी कहते हैं कि चमड़े की बिक्री से मदरसों का खर्च चलता है। इससे मदरसे में पढ़ने वाले बाहर के बच्चे दीनी तालीम हासिल करते हैं। चमड़े से जुड़े व्यवसाय अधिकतर जगहों पर मदरसों के जरिए से हो रहा है। बताते हैं कि उनके मदरसे में साल ख्0क्7 में कुर्बानी के तीन दिनों में बकरे का करीब म्00 व बड़े जानवर का करीब ख्भ्0 के आस-पास चमड़ा जमा हुआ था। वहीं वर्ष ख्0क्8 में बकरे का करीब 7म्भ् व बड़े जानवर का करीब ख्क्9 चमड़ा मदरसे को मिला था। तीन साल पहले जहां तीन से साढ़े तीन लाख की आमदनी हो जाया करती थी। मगर बाद में चमड़े के रेट गिरने की वजह से यह आमदनी महज ब्भ् से भ्0 हजार रुपए के करीब रह गई। इस बार तो कुर्बानी ही कम होने के आसार हैं, ऐसे में आमदनी का जरिया और भी कम हो जाएगा।

मदरसों की मदद का हुक्म

मदरसा जियाउल उलूम पुराना गोरखपुर के प्रिंसिपल मौलाना नूरुज्जमा मिस्बाही ने कहा कि कुर्बानी के जानवर के चमड़े, जकात व सदके से मदरसों के सालभर का खर्च चलता है। यही मदरसे की तरक्की का जरिया भी है। शरीयत में कुर्बानी के जानवर के चमड़े की राशि को गरीबों में बांटने या दीनी मदरसों की मदद करने का हुक्म है। ताकि मदरसों में तालीम हासिल करने वाले बच्चों के खानपान व मदरसे के दीगर खर्च पूरे हो सकें। अमूमन 90 फीसद लोग कुर्बानी का चमड़ा मदरसों में बतौर मदद देते हैं। इसी से ही मदरसे सालभर अपना खर्च चलाते हैं। पिछली बार बकरे का 8भ्0 व बड़े जानवर का ख्भ्0 चमड़ा मदरसे में जमा हुआ था। बकरे का चमड़ा फ्ख् व बड़े जानवर का चमड़ा फ्00 रुपए में बिका था। तीन साल पहले डेढ़ से दो लाख रुपया आमदनी होती थी। जो कम होकर महज ख्भ् से फ्0 हजार रुपया रह गई है। इस बार तो और भी कम उम्मीद है।

कुर्बानी का चमड़ा मदरसों के लिए आमदनी का जरिया है। उन्होंने बताया कि जिले में करीब फ्00 मदरसे हैं। जिनमें करीब ख्88 पंजीकृत हैं। इनमें मात्र क्0 को सरकारी अनुदान मिलता हैं। सभी मदरसों का दारोमदार कुर्बानी के चमड़े, ईद-उल-फित्र के सदका-ए-फित्र व जकात पर है, लेकिन इस बार किसी भी चीज से खास मदद नहीं हो सकी है।

- मुफ्ती मो। अजहर शम्सी

रमजान में जकात और ईद-उल-अजहा में कुर्बानी के चमड़े से मिलने वाली रकम से मदरसा छात्र-छात्राओं की किफालत (पालन पोषण) में मदद होती है। ईद-उल-अजहा पर कुर्बानी के बाद सभी मुसलमान इन चमड़ों को मदरसों को चंदे के तौर पर अदा करते है। कोविड का मदरसों पर काफी बुरा असर पड़ा है। मदरसों में आíथक संकट की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है।

- मुफ्ती अख्तर हुसैन

Posted By: Inextlive