कोई भी व्यक्ति जो मेरी तरह हिमालय की ऊँचाइयों में चीन के साथ अल्पकालिक लेकिन कटु सीमा युद्ध का साक्षी है वो आधी सदी के बाद भी सदमा भूला नहीं है. इस युद्ध में भारत की सैन्य पराजय हुई थी और वो राजनीतिक विफलता भी थी.

इस युद्ध के इतिहास को इतनी बारीकी से लिखा गया है कि उस ज़मीन पर दोबारा चलने की आवश्यकता नहीं, जिस पर इतनी अच्छी तरह से काम हुआ है।

ये कहना पर्याप्त होगा जैसा जवाहर लाल नेहरू के आधिकारिक आत्मकथा लिखने वाले एस गोपाल ने लिखा था- चीज़ें इतनी बुरी तरह ग़लत हुईं कि अगर ऐसा वाक़ई में नहीं होता, तो उन पर यक़ीन करना मुश्किल होता।

लेकिन ये ग़लत चीज़ें इतनी हुईं कि भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन ने अपनी सरकार पर गंभीर आरोप तक लगा दिए। उन्होंने चीन पर आसानी से विश्वास करने और वास्तविकताओं की अनदेखी के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया।

ग़लती

जवाहर लाल नेहरू ने भी ख़ुद संसद में खेदपूर्वक कहा था, "हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था."

इस तरह उन्होंने इस बात को लगभग स्वीकार कर लिया था कि उन्होंने ये भरोसा करने में बड़ी ग़लती की कि चीन सीमा पर झड़पों, गश्ती दल के स्तर पर मुठभेड़ और तू-तू मैं-मैं से ज़्यादा कुछ नहीं करेगा।

हालाँकि चीन के साथ लगातार चल रहा संघर्ष नवंबर 1959 के शुरू में हिंसक हो गया था, जब लद्दाख के कोंगकाला में पहली बार चीन ने ख़ून बहाया था।

इसके बाद ग़लतियाँ होती गईं। इसके लिए हमारे प्रतिष्ठित प्रधानमंत्री को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। लेकिन उनके सलाहकार, अधिकारी और सेना भी बराबर के दोषी हैं, क्योंकि इनमें से किसी ने भी नेहरू से ये कहने की हिम्मत नहीं दिखाई कि वे ग़लत थे।

उनका बहाना वही पुराना था यानी नेहरू सबसे बेहतर जानते थे। चीन के एकतरफ़ा युद्धविराम के बाद सेना प्रमुख बने जनरल जेएन 'मुच्छू' चौधरी का विचार था- हमने ये सोचा थे कि हम चीनी शतरंज खेल रहे हैं, लेकिन वो रूसी रोले निकला।

ज़िम्मेदार लोगजिन लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, उनकी सूची काफ़ी लंबी है। लेकिन शीर्ष पर जो दो नाम होने चाहिए, उनमें पहले हैं कृष्ण मेनन, जो 1957 से ही रक्षा मंत्री थे।

दूसरा नाम लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल का है, जिन पर कृष्ण मेनन की छत्रछाया थी। लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल को पूर्वोत्तर के पूरे युद्धक्षेत्र का कमांडर बनाया गया था। उस समय वो पूर्वोत्तर फ्रंटियर कहलाता था और अब इसे अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है।

बीएम कौल पहले दर्जे के सैनिक नौकरशाह थे। साथ ही वे गजब के जोश के कारण भी जाने जाते थे, जो उनकी महत्वाकांक्षा के कारण और बढ़ गया था। लेकिन उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था। ऐसी ग़लत नियुक्ति कृष्ण मेनन के कारण संभव हो पाई। प्रधानमंत्री की अंध श्रद्धा के कारण वे जो भी चाहते थे, वो करने के लिए स्वतंत्र थे।

एक प्रतिभाशाली और चिड़चिड़े व्यक्ति के रूप में उन्हें सेना प्रमुखों को उनके जूनियरों के सामने अपमान करते मज़ा आता था। वे सैनिक नियुक्तियों और प्रोमोशंस में अपने चहेतों पर काफ़ी मेहरबान रहते थे।

निश्चित रूप से इन्हीं वजहों से एक अड़ियल मंत्री और चर्चित सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया के बीच बड़ी बकझक हुई। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन उन्हें अपना इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए मना लिया गया।

लेकिन उसके बाद सेना वास्तविक रूप में मेनन की अर्दली बन गई। उन्होंने कौल को युद्ध कमांडर बनाने की अपनी नादानी को अपनी असाधारण सनक से और जटिल बना दिया।

हिमालय की ऊँचाइयों पर कौल गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्हें दिल्ली लाया गया। मेनन ने आदेश दिया कि वे अपनी कमान बरकरार रखेंगे और दिल्ली के मोतीलाल नेहरू मार्ग के अपने घर से वे युद्ध का संचालन करेंगे।

टकराव से डरसेना प्रमुख जनरल पीएन थापर इसके पूरी तरह खिलाफ थे, लेकिन वे मेनन से टकराव का रास्ता मोल लेने से डरते थे। ये जानते हुए कि कौल स्पष्ट रूप से कई मामलों में ग़लत थे, जनरल थापर उनके फ़ैसले को बदलने के लिए भी तैयार नहीं रहते थे।

इन परिस्थितियों में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि नेहरू के 19 नवंबर को राष्ट्रपति कैनेडी को लिखे उन भावनात्मक पत्रों से काफी पहले मेनन और कौल पूरे देश में नफरत के पात्र बन चुके थे।

इसका नतीजा स्पष्ट था। कांग्रेस पार्टी के ज़्यादातर लोगों और संसद ने अपना ज़्यादा समय और ऊर्जा आक्रमणकारियों को भगाने की बजाए मेनन को रक्षा मंत्रालय से हटाने में लगाया।

नेहरू पर काफ़ी दबाव पड़ा और उन्होंने मेनन को सात नवंबर को हटा दिया। कौल के मामले में राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने जैसे सब कुछ कह दिया।

19 नवंबर को दिल्ली आए अमरीकी सीनेटरों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से मुलाकात की। इनमें से एक ने ये पूछा कि क्या जनरल कौल को बंदी बना लिया गया है। इस पर राष्ट्रपति राधाकृष्णन का जवाब था- दुर्भाग्य से ये सच नहीं है।

राष्ट्रीय सुरक्षा पर फ़ैसला लेना इतना अव्यवस्थित था कि मेनन और कौल के अलावा सिर्फ़ तीन लोग विदेश सचिव एमजे देसाई, ख़ुफ़िया ज़ार बीएन मलिक और रक्षा मंत्रालय के शक्तिशाली संयुक्त सचिव एचसी सरीन की नीति बनाने में चलती थी।

ख़ुफिया प्रमुख की नाकामीइनमें से सभी मेनन के सहायक थे। मलिक की भूमिका बड़ी थी। मलिक नीतियाँ बनाने में अव्यवस्था फैलाते थे, जो एक खुफिया प्रमुख का काम नहीं था।

अगर मलिक अपने काम पर ध्यान देते और ये पता लगाते कि चीन वास्तव में क्या कर रहा है, तो हम उस शर्मनाक और अपमानजनक स्थिति से बच सकते थे। लेकिन इसके लिए उन्हें चीन की रणनीतियों का पता लगाना होता। लेकिन भारत पूरी तरह संतुष्ट था कि चीन की ओर से कोई बड़ा हमला नहीं होगा।

लेकिन माओ, उनके शीर्ष सैनिक और राजनीतिक सलाहकार सतर्कतापूर्वक ये योजना बनाने में व्यस्त थे कि कैसे भारत के ख़िलाफ़ सावधानीपूर्वक प्रहार किया जाए, जो उन्होंने किया भी। नेहरू ने ये सोचा था कि भारत-चीन संघर्ष के पीछे चीन-सोवियत फूट महत्वपूर्ण था और इससे चीन थोड़ा भयभीत रहेगा।

कायरता या विश्वासघातलेकिन हम ये नहीं जानते थे कि क्यूबा के मिसाइल संकट की जानकारी का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करते हुए नेहरू को सबक सिखाने का माओ का संदेश निकिता ख्रुश्चेव के लिए भी था। और इसी कारण सोवियत नेता ने संयम बरता।

भारत को इस मिसाइल संकट के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। 25 अक्तूबर को रूसी समाचार पत्र प्रावदा ने ये कह दिया कि चीन हमारा भाई है और भारतीय हमारे दोस्त हैं। इससे भारतीय कैंप में निराशा की लहर दौड़ गई।

प्रावदा ने ये भी सलाह दी कि भारत को व्यावहारिक रूप से चीन की शर्तों पर चीन से बात करनी चाहिए। ये अलग बात है कि क्यूबा संकट का समाधान क़रीब आते ही रूस अपनी पुरानी नीति पर आ गया।

लेकिन माओ ने आक्रमण का समय इस हिसाब से ही तय किया था। आख़िर में माओ ने भारत में वो हासिल कर लिया, जो वो चाहते थे। वो ख्रुश्चेव को कैरेबियन में कायरता और हिमालय में विश्वासघात के लिए ताना भी मार सकते थे।

Posted By: Inextlive