अफगानिस्तान में लगातार जारी हिंसा और खतरों के बीच 50 साल तक लगातार एक ट्रक ड्राइवर के रुप में काम करते रहने के लिए 68 वर्षीय अदम खान को अफगानिस्तान के प्रतिष्ठित मीर मस्जिदी खान मेडल ने नवाज़ा गया है.

अदम खान ने बीबीसी संवाददाता बिलाल सरवरी से हुई बातचीत में बताया कि अफगानिस्तान में कई हुकूमतें आईं और गईं लेकिन वो तमाम खतरों और हिंसा के बीच काबुल के सफ़ाई विभाग में 48 साल तक अपनी सेवाएं दीं।

मस्जिदी ख़ान की कहानी''पहले पहल जब मैंने नगर निगम के सफ़ाई विभाग में पहुंचा तो मेरी उम्र 20 साल थी। अफगानिस्तान में उस दौरान सम्राट मोहम्मद ज़ाहिर शाह का शासन था और मेरा पहला काम था सुरक्षित ट्रक चलाने संबंधी एक परिक्षा को पास करना। वो मेरे लिए एक रोमांचक समय था और परीक्षा में खरा उतरने के बाद मुझे ट्रक की चाबी थमा दी गई। वो चाबी आजतक मेरे पास है।

मैंने 48 साल तक बिना किसी रुकावट वही ट्रक चलाया। अफगानिस्तान में तख्ता-पलट के बाद बनी दाउद खान की सरकार के दौरान भी मैं काम करता रहा। मुझे नहीं पता था कि तख्तापलट हो गया है लेकिन मेरे बॉस ने बस मुझसे इतना ही कहा कि मैं घर जल्दी चला जाऊं।

उस ज़माने में काबुल खूबसूरत हुआ करता था। शहर की जनसंख्या कम थी और यहां बहुत से पेड़, बगीचे और नहर हुआ करती थीं। मुझे याद है तब कई पर्यटक यहां आया करते थे और नियम कानून कड़े थे।

मैंने अपनी ज़िंदगी में एक नियम बनाकर रखा जिसे मैं आज भी निभाता हूं और वो है राजनीति से दूरी। एक दिन जब मैं पूर्व राष्ट्रपति सरदार मोहम्मद दाउद खान के घर के नज़दीक सफ़ाई में जुटा था तब उन्होंने अचानक वहीं पहुंचकर मेरी पीठ थपथपाई और मुझे एक सूट और एक जोड़ी जूते तोहफ़े में दिए। लेकिन तख्तापलट में उनके मरने की खबर भी मुझे अपने दफ़्तर से अगले दिन ही मिली।

सफ़ाई कर्मचारी होने के कारण कई बार मुझे अपमानित भी किया गया लेकिन मैंने उसे भई अपनी ज़िंदगी का हिस्सा माना। मुझे ठीक से याद नहीं कि अफगानिस्तान में रुसी फौजें किस तरह आईं लेकिन मुझे याद है कि एक दिन मैं काबुल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास से गुज़र रहा था तब मुझे कुछ रुसी सैनिक सेना के टैंक में बैठे दिखाई दिए।

वो सुनहरे बालों वाले जवान थे जिनकी पोशाकें सुर्ख लाल थीं। समय के साथ शहर पर उनका कब्ज़ा बढ़ने लगा लेकिन मैंने सोच रखा था कि कुछ भी हो मैं अफगानिस्तान नहीं छोड़ूंगा।

'गृहयुद्ध की स्थितियां बनने लगीं'

काबुल शहर वैसा ही था लेकिन हालात बदल रहे थे हम यह समझने लगे थे कि गृहयुद्ध की स्थितियां बनने लगी हैं। खतरों से बचने के लिए हम अक्सर अलग-अलग रास्तों का इस्तेमाल करते थे। इस दौरान मैंने पहली बार महसूस किया कि दिन के किसी भी समय रॉकेट जब अचानक आपके नज़दीक कहीं गिरते हैं तो कैसा महसूस होता है।

लेकिन काबुल नगर निगम फिर भी काम करता रहा। कुछ सामाजिक संस्थाएं और गैर-सामाजिक संगठन हमारे लिए ईंधन और खाने का इंतज़ाम करते थे, लेकिन काबुल शहर अब अपनी पहचान और अपना चेहरा खो चुका था। तालिबान के आने बाद भी हमारा काम तो जारी रहा लेकिन मुझे उम्मीद थी कि अब शायद स्थितियां बदलें।

तालिबान के जाने के बाद भी शहर में हिंसा और हमलों का दौर जारी रहा। अक्सर हमें खाना नहीं मिलता था और अचानक होने वाले धमाकों में कई ट्रक ड्राइवर मारे गए लेकिन मैं तो अपना काम कर ही रहा हूं

नौकरी खत्म होने के बाद मैंने अपने ट्रक की चाबी दूसरे ड्राइवर को दे दी लेकिन मैं नहीं जानता था कि ये ट्रक हमेशा के लिए मुझे दे दिया जाएगा। काग़ज़ी कारवाई खत्म होने के बाद मैं इसे ले जाऊंगा। लेकिन मैं जानता हूं कि काबुल नगर निगम में बिताया ये समय कभी लौटकर नहीं आएगा.''

Posted By: Inextlive