-माह-ए-मुकद्दस रमजान ने तय किया आधा फासला

-आलिम-ए-दीन बता रहे रमजान के फजाइल और मगफिरत के मायने

Meerut : माह-ए-मुकद्दस रमजान अब तकरीबन आधा पखवाड़ा तय कर चुका है। दूसरे अशरे के अंतर्गत उलेमा-ए-दीन मगफिरत की फजीलत बयां कर रहे हैं। दिनभर अकीदतमंद इबादत में मशगूल हैं और तरावीह का दौर पूरी शिद्दत से जारी है। आलिम-ए-दीन के मुताबिक जैसे तंदुरूस्त शरीर के लिए संतुलित खुराक लाजमी है, वैसे ही स्वस्थ आत्मा के लिए अल्लाह की इबादत लाजमी खुराक है। रोजे का बुनियादी मकसद यही है कि रोजेदार को अपने शारीरिक और दुनियावी जरूरतों के साथ, आत्मा की जरूरत का अहसास हो।

नेकराह पर चलना ही रोजा

ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के शहर सदर कारी शफीकुर्रहमान कासमी फरमाते हैं कि रोजा एक ऐसी इबादत है, जिसका धोखे, झूठ और बहकावे से कोई ताल्लुक नहीं। खुदा की इबादत और बंदगी जरिए नेकराह पर चलना ही रोजा है। झूठ न बोलना, सजदा, मजलूमों की मदद करना, फिरका करना आदि का इस दौरान हजारों गुना सवाब मिलता है।

अल्लाह के करीब पहुंचने का जरिया

माइनॉरिटी एजूकेशन एसोसिएशन के महासचिव आफाक अहमद खान के मुताबिक रोजे के तीन बुनियादी मकसद हैं। इनमें तकवा यानि खुदा से डरना, अल्लाह के हुक्म को मानना और खुदा की बख्शी हुई नेमतों पर उसका शुक्र अदा करना शामिल है। रोजा अल्लाह के करीब पहुंचने का नायाब जरिया है। इसके जरिए अल्लाह ने रसूलों को इनामात और अपनी कुरबत से भी नवाजा। इसी महीने शब-ए-कद्र की रातों में कुरान-ए-पाक नाजिल हुई।

रोजा है जिस्म और रूह का संतुलन

हर साल रोजे के एक महीने के जरिए इस महीने में हर मुसलमान को अपने खान-पान व नफ्ज पर नियंत्रण करना होता है। यह संतुलन जिस्म और रूह के बीच पुल का काम करता है। जिससे दोनों पाक-साफ होते हैं। यह अल्लाह की रोजेदार को दी गयी ताकत ही होती है कि वह किचन का रुख नहीं करता। वह कहते हैं कि हदीस पाक में अल्लाह ताला का यह पैगाम सुना दिया गया कि 'रोजा सिर्फ मेरे लिए है और इसका बदला मैं खुद अता करता हूं.' इस तरह रोजा एक गुप्त इबादत भी है जिसमें सिर्फ अल्लाह और उसका बंदा शामिल है। आफाक अहमद खान फरमाते हैं कि इस मुबारक महीने की एक रात जिसे शब-ए-कद्र कहते हैं हजार महीनों से बेहतर है। हकीकत में रोजा सिर्फ खाना-पीना छोड़ने का नाम नहीं। बल्कि रोजा नाम है खुद के एहतसाब का। खुद के भीतर झांकने और इच्छाओं पर नियंत्रण का।

Posted By: Inextlive