उत्तराखंड की तबाही ने पूरे देश को हिला दिया है. कुमाऊं में पहाड़ों के फटने से अब तक 52 लोगों की मौत हो चुकी हैं. आखिर अचानक से पहाड़ क्यों फटने लगे? इस सवाल का जवाब बीएचयू के जियोग्राफी डिपार्टमेंट के असिस्टेंट प्रोफेसर ने विक्रम शर्मा ने खोजा है.

वाराणसी (ब्यूरो)। विक्रम शर्मा ने 1872 से 2017 के बीच नासा के रिमोट सेसिंग डाटा पर रिसर्च किया। जिसमें उन्हें मिला कि हिमालय और उत्तराखंड जैसी ऊंची जगहों पर पहले 6 महीने बर्फ रहती थी। अब 4 महीने भी नहीं टिक पा रही है। इस वजह से जल वाष्पीकरण अधिक हो रहा है। इस वाष्पीकरण की वजह से ही बादल बहुत बन रहे हैं। पहाड़ों पर छोटी-छोटी घाटियां होने की वजह से यह बादल आपस में टकराते हैं। जिससे बेमौसम ही बरसात हो रही है। इस बरसात के कारण पहाड़ों में पहले फ्लैश फ्लड और भूस्खलन हो रहा है। अगर ऐसा ही हाल रहा तो इसका असर मैदानी इलाकों में भी होगा। अधिक बारिश होने पर पहाड़ों की तबाही बनारस, कानपुर और इलाहाबाद जैसे शहरों पर देखने को मिलेगी। गंगा का जलस्तर बढऩे लगेगा, जिससे इन शहरों में बेमौसम बाढ़ की आशंका बनी रहेगी।

240 घटनाओं पर की रिसर्च
विक्रम शर्मा ने 1872 से 2017 के बीच हुई 240 घटनाओं पर रिसर्च की है। उनका कहना है कि पहाड़ों के फटने और बेमौसमी बारिश होने की घटनाएं अब दिन ब दिन बढ़ती जाएंगी। केदारनाथ में आए जल प्रलय जैसे मामले भी बढ़ेंगे। यह डराने वाले तथ्य तब सामने आए जब नासा के रिमोट सेसिंग डेटा को आब्जर्व किया गया। इसमें हिमालय पर घास जमीं हुई नजर आई। पहले नवंबर में बर्फ गिरना शुरू हो जाती थी। अब जनवरी-फरवरी तक बर्फ नहीं गिर रही है।

बनारस-कानपुर में भी दिखेगा असर
यूरोप के इनवॉयरमेंटल रिर्सच लेटर में पब्लिश हुए शोधपत्र में साफ लिखा है कि समतली क्षेत्र पर भी पहाड़ों की तबाही का असर नजर आएगा। इसका उदाहरण केदारनाथ की तबाही में देखने को मिला था। कानपुर और बनारस में गंगा अपने खतरे के निशान से ऊपर चली गई थी। कुमाऊं में हो रही बारिश अगर दो-चार दिन और हुई तो इस बार भी कानपुर, इलाहाबाद और बनारस में गंगा का जलस्तर बढ़ जाएगा।

इको सिस्टम को क्षति पहुंचाने वाले तत्व
- फारेस्ट एरिया में बढ़ता मानव हस्तक्षेप
- अनावश्यक निर्माण
- घने वन क्षेत्रों में तोड़-फोड़
- पहाड़ों पर ब्लास्टिंग
-वाहनों के आवागमन से कार्बन का उत्सर्जन
-अधिक कार्बन से बढ़ता हीट
- नदी-झील के ड्रैनेज सिस्टम में हस्तक्षेप
-वैज्ञानिक सुझाव न मानना

इस तरह से थमेंगे हादसे
-छोटे-छोटे बांध
- वैज्ञानिक और सीमित विकास
-इको सिस्टम के प्रति सजगता
- पूरी तरह से बंद हो वनों की कटाई
- वाहनों के प्रयोग पर रोक
-वन क्षेत्रों में बंद हो शोर
-ब्लास्टिंग और खनन बैन हो

आइए क्लाइमेट को समझते हैैं
देहरादून जिले के चकराता ब्लॉक का एक गांव है बायला गांव। जो दो हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां साल 1994-95 में नवंबर माह में बच्चों द्वारा बनाया गया बर्फ का टीला (छोटे ढूहे) 15 अप्रैल यानी बैशाखी पर्व तक जमे रहते थे। आज यानी 2021 में जनवरी-फरवरी में या कभी-कभी मार्च में बर्फ गिरती है। इन दिनों बच्चों द्वारा बनाया गया बर्फ का टीला महज तीन दिन में ही पिघल जाता है।

स्नो कवर कवर में शिफ्ट हो रही ट्री लाइन
इनवॉयरमेंटल रिर्सच लेटर में लिखा गया है कि इन्वॉयरमेंट के इको सिस्टम में स्नो कवर और ट्री लाइन का बड़ा महत्व है। इन्वॉयरमेंट वैलेंस के लिए ये इंडिकेटर ढाल का काम करते हैैं। बीते दशकों से कार्बन उत्सर्जन बढऩे से स्नोकवर पिघल रहे हैैं , इससे बंजर पहाड़ों का दायरा बढ़ रहा है। वहीं, वनों की अंधाधुन कटाई से ट्री लाइन खिसक रही हैैं। इन वजहों से गंगा ड्रैनेज सिस्टम और मानव जीवन के साथ जंगली जीवों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है।

Posted By: Inextlive