स्वभाव की परिभाषा यह है- जिसे छोड़ा न जा सके। जिसे छोड़ा जा सके वह परभाव है वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव का मतलब है जिसे अपने से अलग किया ही नहीं जा सकता। लाख उपाय करें तो भी स्वभाव से भिन्न आप हो नहीं सकते।

मुझे लगता है कि जीवन-यात्रा में मैं स्वभाव से बहुत दूर निकल आया हूं। तो क्या स्वभाव में वापस लौटने की, प्रतिक्रमण की यात्रा भी इतनी ही लंबी होगी? या उसमें कोई शॉर्टकट भी संभव है?

शॉर्टकट तो बिल्कुल संभव नहीं है। यात्रा इतनी लंबी नहीं होगी। यात्रा होगी ही नहीं। करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी सूरज की तरफ पीठ करके खड़ा है और चलता जा रहा है। हजार मील चल चुका है और हम उससे आज कहते हैं कि तू सूरज की तरफ हजार मील चल चुका पीठ करके, इसीलिए अंधेरे में भटक रहा है और प्रकाश को खोजना चाहता है। तो वह आदमी कहेगा कि क्या सूरज की तरफ मुंह करने के लिए मुझे हजार मील फिर चलना पड़ेगा? उससे हम कहेंगे, नहीं, हजार मील नहीं चलना पड़ेगा।

वह कहे कि क्या कोई शॉर्टकट हो सकता है कि दो-चार-पांच मील चलने से हो जाए? हम कहेंगे, दो-चार-पांच मील चलने की भी कोई जरूरत नहीं है। तू सिर्फ रुख बदल ले। तू सिर्फ पीठ सूरज की तरफ किए है, मुंह कर ले। क्योंकि सूरज कोई एक स्थान में बंधा हुआ नहीं है और जब तू सूरज की तरफ पीठ करके जा रहा था तब भी सूरज तेरे पीछे साथ ही था। परमात्मा अगर कहीं एक जगह बंधा होता, या स्वभाव कहीं कैद होता, हम उससे दूर निकल सकते थे। हम दूर नहीं निकल सकते हैं, हम सिर्फ पीठ कर सकते हैं। इसलिए कोई लाखों जन्मों तक स्वभाव से पीठ किए रहा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। आज मुंह फेरने को राजी हो जाए, स्वभाव में प्रविष्ट हो जाएगा। इसलिए न तो मैं कहता हूं कि उतना ही चलना पड़ेगा जितना आप विपरीत चले हैं और ना मैं कहता हूं कि कोई शॉर्टकट संभव है। शॉर्टकट की तो कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि चलना ही नहीं है, सिर्फ रुख बदलना है।

ऐसा समझें कि इस कमरे में अंधेरा भरा हो हजारों साल से और हम कहें कि दीया जलाएं। तो कोई पूछे कि क्या हजारों साल तक दीया जलाते रहेंगे तब अंधेरा मिटेगा? क्योंकि अंधेरा हजारों साल पुराना है और अभी दीया जलेगा तो एकदम से कैसे अंधेरे को मिटाएगा? इतना पुराना अंधेरा! कोई जल्दी का उपाय नहीं है? तो हम उससे कहेंगे, न तो देर लगेगी और न जल्दी का कोई सवाल है। क्योंकि दीया जला नहीं कि अंधेरा मिट जाएगा। अंधेरे की कोई प्राचीनता नहीं होती। अज्ञान की कोई प्राचीनता नहीं होती। वह कितना ही समय रहा हो, उसकी पर्तें नहीं जमतीं। उनको काटना नहीं पड़ेगा।

ज्ञान की एक किरण-और अंधेरा कट जाता है और अज्ञान छूट जाता है। और ऐसा किसी एक व्यक्ति के साथ थोड़े ही है कि वह स्वभाव से दूर निकल गया है। सभी स्वभाव से दूर निकल गए हैं। पर दूर निकलने का इतना ही मतलब है कि वे पीठ करके चलते रहे हैं। वस्तुत: तो कोई स्वभाव से दूर नहीं निकल सकता। कैसे निकलेंगे? स्वभाव का मतलब ही यह है कि जो आप हैं। कौन निकलेगा दूर? स्वभाव और आप दो होते तो कहीं स्वभाव को छोड़कर भाग आ सकते थे। स्वभाव यानी आप। तो आप दूर कैसे निकलेंगे? कोई दूर निकलने का उपाय नहीं है। वस्तुत: स्वभाव की परिभाषा समझ लेनी चाहिए।

स्वभाव की परिभाषा यह है- जिसे छोड़ा न जा सके। जिसे छोड़ा जा सके वह परभाव है, वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव का मतलब है, जिसे अपने से अलग किया ही नहीं जा सकता। लाख उपाय करें तो भी स्वभाव से भिन्न आप हो नहीं सकते। तो पहली तो बात यह है कि स्वभाव से आप दूर नहीं जा सकते, स्वभाव को छोड़ नहीं सकते, स्वभाव से विपरीत नहीं हो सकते। लेकिन तब सवाल यह उठता है, तो फिर यह लाओत्से निरंतर कहे चला जा रहा है-स्वभाव में डूबो! स्वभाव में उतरो! स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाओ! तो इसकी बात गलत होनी चाहिए, अगर हम स्वभाव खो ही नहीं सकते तो। इसकी बात भी गलत नहीं है। हम स्वभाव के प्रति बेभान हो सकते हैं, स्वभाव के प्रति इनअटेंटिव हो सकते हैं, स्वभाव के प्रति ध्यान छोड़ सकते हैं। स्वभाव का स्मरण खो सकते हैं, स्वभाव नहीं खो सकते।

जैसे आपके खीसे में एक हीरा रखा है। आप भूल सकते हैं, विस्मरण हो सकता है कि खीसे में हीरा है; इससे हीरा नहीं खो जाता। हीरा खीसे में है, चाहे आप याद रखें, चाहे याद न रखें। स्वभाव आपके भीतर है। तो जब आप वस्तुओं में, वासनाओं में, इच्छाओं में भटकते हैं, तो विस्मरण हो जाता है। इसलिए भारत के संतों ने कहा है, परमात्मा को पाना नहीं है, केवल प्रभु-स्मरण! सिर्फ प्रभु-स्मरण करना है, पाना नहीं है। क्योंकि पाना तो उसे होता है, जिसे हमने कभी खोया हो। परमात्मा को हम खो नहीं सकते। सिर्फ स्मरण! प्रभु-स्मरण का अर्थ है कि जो मेरे भीतर छिपा है उसका मुझे बोध हो जाए। राम-राम दोहराने से बोध नहीं हो जाएगा। मेरी आंखें जो बाहर भटक रही हैं, भीतर मुड़ जाएं। मेरे कान जो बाहर सुन रहे हैं, भीतर सुनने लगें। मेरी बुद्धि जो बाहर के संबंध में सोच रही है, वह भीतर मुड़ जाए, उसका दीया, उसका प्रकाश भीतर पड़ने लगे। परमात्मा को पाने का कोई उपाय नहीं है। परमात्मा मिला हुआ है। सिर्फ आपकी गर्दन जकड़ गई है बाहर देखते-देखते; पीछे मुड़ना भूल गई है।बस उसे पीछे मुड़ना सिखाना है।

ओशो।

मन की स्वतंत्रता है संन्यास, तो फिर मन क्या है? ओशो से जानें

जानें क्या है आंतरिक स्थिरता? इसे कैसे पा सकते हैं?


Posted By: Kartikeya Tiwari