पिछले साल 16 दिसंबर को हुई दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद लोगों का गुस्सा उबला. क़ानून में संशोधन हुए और देशभर में व्यापक प्रतिक्रिया का दौर चल रहा है लेकिन सवाल यह है कि ज़मीनी हालात कितने बदले हैं.


बलात्कार के जो मामले शहरी इलाकों में हुए, उन पर तो बड़े पैमाने पर जनाक्रोश उभरा, लेकिन देश के बड़े हिस्से में जहां सुरक्षा व्यवस्था के ज्यादा प्रबंध नहीं हैं, वहां लड़कियों के खिलाफ होने वाले अपराध पर मीडिया की मुख्यधारा में बहुत कम देखने-सुनने को मिला.इसी परिप्रेक्ष्य में ग्रामीण भारत और शहरी भारत की दो युवतियों की ज़ुबानी जानिए इन इलाकों में रहने वाली औरतों की कहानी.सुहासिनी, छात्रा, सेमरताल गांव, बिलासपुरदिल्ली हमारे देश की राजधानी है. वहां सबसे ज़्यादा सुरक्षा रहती है. इतनी सुविधाओं वाले शहर में जब गैंगरेप की घटनाएं हो सकती हैं तो देश के कोने-कोने में जहां जरा सी भी सुरक्षा नहीं होती, वहां क्या होता होगा?इन इलाकों में बलात्कार के ज़्यादातर मामले दबा दिए जाते हैं.


दिल्ली में जब घटना हुई तो सारा देश उस लड़की के साथ था. लड़की के साथ हुए अन्याय को मीडिया ने उठाया, वरना यह ख़बर भी अन्य ख़बरों की तरह ही दबा दी जाती.मैं एक सामान्य घर की लड़की हूं. गांव में रहती हूं. मैं घर से 10 किमी दूर कॉलेज जाती हूं.

कॉलेज जाने के लिए कभी बस, तो कभी ऑटो लेना पड़ता है. रोज़ अनजान लोगों के साथ सफ़र करती हूं. मुझे भी डर लगा रहता है क्योंकि हमारे इलाक़े में क़ानून व्यवस्था भी सही नहीं है.क़ानून ऐसा हो कि हम बिना डर और चिंता के सफ़र कर सकें. क़ानून इतना कड़ा हो कि अपराधी लड़कियों की तरफ आंख उठाने से पहले दस बार सोचें.मुझे कॉलेज से घर आने में देर हो जाती है तो मां-बाप को चिंता होती है."अब लड़कियां घर से निकलने में डर महसूस करने लगी हैं. वे बेखटके कहीं आ-जा नहीं सकती. लड़के हमेशा हर जगह अकेले चले जाते हैं, लड़कियों के साथ ऐसा नहीं होता."-सुहासिनी, छात्रा, बिलासपुरएक बार जब मैं कॉलेज से शाम छह बजे छूटी, तो गेट तक आते-आते साढ़े छह बज गए. मुझे जो ऑटो मिला उसमें कई लड़के बैठे थे. यही नहीं, वे शराब पिए हुए थे.मुझे उनके बीच बैठने में असहज-सा महसूस हो रहा था. मगर मेरी मजबूरी थी, क्योंकि घर आने के लिए और कोई ऑटो नहीं मिल रहा था.रेप की घटनाओं से लड़कियां घर से निकलने में डर महसूस करने लगी हैं. वे बेखटके कहीं आ-जा नहीं सकती. लड़के हमेशा हर जगह अकेले चले जाते हैं, ऐसा क्यों होता है?श्वेता, पार्ट टाइम जॉब करने वाली छात्रा, दिल्ली

दिल्ली बड़ी-बड़ी इमारतों, बड़े सपनों, बड़ी उपलब्धियों और बड़े विकास का शहर है. मगर एक समाज कामयाब और विकसित तभी माना जाता है, जब उसके पास नैतिक मूल्य हों.मैं जॉब करती हूं. आना-जाना होता है बसों में. कई दिक्कतें हैं. कहते हैं कि हमारा समाज विकसित हो गया है. मुझे ऐसा नहीं लगता.ऐसा लगता है महिलाएं किसी की निगरानी में हैं. उनके चलने, खाने, पहनने और बात करने के तरीके पर पाबंदियां ही पाबंदियां हैं. किस से दोस्ती करें, न करें, इस पर भी दूसरों का दख़ल है."लगता है हम महिलाएं चौबीसो घंटे किसी की निगरानी में हैं. हमारे चलने, खाने, पहनने, बात करने के तरीके पर पाबंदियां ही पाबंदियां हैं. किस से दोस्ती करें, ना करें इस पर भी दूसरों का दख़ल है. "-श्वेता, छात्राशाम के पांच बजे का वक़्त ज़्यादा नहीं होता. मगर जब पांच बजे दफ्तर से निकलती हूं तो लगता है जैसे कोई मेरे साथ चल रहा है, मुझे देख रहा है. अचानक मेरे पास कोई गाड़ी आकर रुक जाती है, तो मैं सहम जाती हूं. न जाने क्या हो जाए मेरे साथ.16 दिसंबर के बाद मैं पहले से ज्यादा असुरक्षित महसूस करती हूं.
आज लोग यह भी कहते हैं कि क्या ज़रूरत थी उस लड़की को उतनी रात बाहर रहने की और लड़के के साथ घूमने की, उन लड़कों से इस तरीके से बात करने की.मैं काम पर जींस पहनकर जाना चाहती हूं. पर मेरा समाज इसकी इजाज़त नहीं देता.महिलाओं के प्रति नज़रिए में परिवर्तन आया है. मगर जिस परिवर्तन की उम्मीद हम करते हैं, वैसा नहीं हुआ है. समाज अभी भी पूरी तरह नहीं जागा है.

Posted By: Satyendra Kumar Singh