- सरकारी योजना के प्रचार प्रसार तक सीमित रहे गए पपेट शो

- सिटी में अंगुलियों की गिनती तक रह गए कठपुतली कलाकार

LUCKNOW: दुनिया एक मेला है और इंसान यहां कठपुतली। बस फर्क इतना है कि हाड़ मांस की बने पपेट सच और झूठ की नाव में सवार होकर अपने संसार में डूबे है और काठ की बनी कठपुलती उनके हाड़ मांस के पपेट को जगाने का प्रयास कर रहे है। व‌र्ल्ड पपेट डे के मौके पर राय उमानाथ बली में पपेट कलाकारों ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस मौके पर पर पपेट के साथ एक नाटक का मंचन भी किया गया।

गुम हो रही है पपेट सांस्कृति

कार्टून फिल्म और विडियो गेम के दौर में पपेट सांस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। सिटी में पपेट के चुनिंदा ही कलाकार रह गए है जो इस कला को आगे बढ़ा रहे है। पपेट कलाकार मेराज आलम का कहना है कि महंगाई और पैसों की मार ने इस कला को अंकुश लगा दिया। इसके अलावा आज पपेट कलाकार धीरे-धीरे खत्म हो रहे है। एक पपेट कलाकार को स्क्रिप्ट, सिलाई, मैन्यूपेंशन, पेटिंग, वाक्यपटूता और ज्वलंत मुद्दों की जानकारी होना बहुत जरूरी है तभी वह सफल पपेट कलाकार बन सकता है।

दस साल से मनाया जा रहा पपेट डे

कठपुतली कला या पपेट आर्ट प्रचीन समय से ही मनोरंजन और संदेश सम्प्रेषण की अद्भुत कला रही है। केवल इंडिया में नहीं बल्कि पूरे विश्व में पपेट कल्चर आज भी है। रूस के पुतुलकार सर्गेई अब्रात्सोव के निधन दिवस पर हर वर्ष ख्क् मार्च को पपेट कलाकारों का पेरिस स्थित विश्व संगठन (युनिमा) विश्व पपेट दिवस के रूप में मनाता है

सरकारी स्कीम तक सीमित है

कभी गांव और शहरों में मनोरंजन के लिए कठपुतली का शो बहुत अहम था। अब कठपुतली शो केवल सरकारी स्कीम तक ही सीमित रह गया है। सरकारी योजना के तहत चलने वाले अभियान या योजना का प्रचार और प्रसार करने के लिए गांव-गांव में कठपुतली शो का आयोजन किया जाता है। पपेट कलाकारों का कहना है कि सरकारी स्कीम के चलते उनकी दुनिया जैसे-तैसे चल रही है। कभी गुलाबो सतराबो का करेक्ट अब नए-नए रूप ले चुके है। आज लोग सुपर हीरो को ध्यान रखते है, लेकिन पपेट के करेक्टर को भूल चुके है।

Posted By: Inextlive