चीन की वजह से एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम की जरूरत

कानपुर। अंतरिक्ष में सैन्य उपयोग और अन्य संचार संबधी सैटेलाइट को दुश्मन देश के हमलों से बचाने के लिए एंटी सैटेलाइट वेपंस या मिसाइल सिस्टम की जरूरत पड़ती है। ताकि युद्ध के दौरान दुश्मन देश हमारे सैटेलाइट पर हमला करके हमें संचार और सैन्य रूप से बेकार न कर दे। कार्नेज एंडावमेंट फाॅर इंटरनेशनल पीस में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक भारत को इसकी जरूरत सबसे पहले तब महसूस हुई जब जनवरी 2007 में चीन ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। उस समय भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के तत्कालीन अध्यक्ष डाॅ. कस्तूरीरंगन ने अंतरिक्ष में अपने सैटेलाइटों की सुरक्षा को लेकर चिंता जताई थी। भारतीय वायुसेना के तत्कालीन एयर चीफ मार्शल पीवी नाईक ने एंटी सैटेलाइट वेपंस की पुरजोर वकालत की। द डिप्लोमैट में प्रकाशित एंटी सैटेलाइट वेपंस संबंधी एक रिपोर्ट में भारतीय सेना के तत्कालीन जनरल दीपक कपूर ने भी एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम के विकास पर जोर देते हुए कहा था कि चीन के सैन्य अंतरिक्ष कार्यक्रम को देखते हुए भारत को भी इस क्षेत्र में काम करने की जरूरत है ताकि हम भविष्य में होने वाले युद्ध के दौरान अपनी आक्रमण और रक्षात्मक क्षमता को विकसित कर सकें। भारत सरकार की हरी झंडी के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ) ने इस क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया।

कैसे काम करता है एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम

भारतीय सेना में एयर डिफेंस कोर के पूर्व डाइरेक्टर जनरल लेफ्टिनेंट जनरल डाॅ. विजय कुमार सक्सेना ने 'एंटी सैटेलाइट वेपंस : अ लाइकली फ्यूचर ट्रेजेक्टरी' में विस्तार से एंटी मिसाइल वेपंस के बारे में जिक्र किया है। इस लेख के मुताबिक एंटी बैलेस्टिक मिसाइल और अंतरिक्ष कार्यक्रम सफलतापूर्वक चलाने वाला देश आसानी से एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम डेवलप कर सकता है। भारत के पास 5000 किमी दूरी तक मार करने वाली एंटी बैलेस्टिक मिसाइल अग्नि-V है, जो एलईओ में 600 किमी ऊंचाई तक पहुंच कर किसी भी सैटेलाइट को उड़ा सकती है। अंतरिक्ष कार्यक्रम में भारत पहले ही काफी कामयाबी हासिल कर चुका है ऐसे में उसके लिए यह क्षमता हासिल करना बहुत मुश्किल नहीं है। बिना वारहेड के एंटी बैलेस्टिक मिसाइल को पृथ्वी से लांच करके अंतरिक्ष में स्थापित टारगेटेड सैटेलाइट से टकरा कर नष्ट कर दिया जाता है। एलईओ में 2500-3000 से ज्यादा पिंड तीव्र गति से पृथ्वी का चक्कर लगाते रहते हैं। इस तरह एंटी सैटेलाइट मिसाइल को इन सबसे बचाते हुए लक्षित सैटेलाइट तक पहुंचाना काफी जटिल काम होता है। ऐसे में अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए जाने वाले राॅकेट जैसी ही पथ प्रदर्शक गणना की जरूरत पड़ती है, जो एंटी सैटेलाइट वेपन को लक्षित सैटेलाइट तक सटीकता के साथ पहुंचा दे।

दो प्रकार के होते हैं एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम

कार्नेज एंडावमेंट फाॅर इंटरनेशनल पीस में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक, एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम दो प्रकार के होते हैं। एक काइनेटिक एनर्जी एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम (केई एसैट) होते हैं और दूसरे को-आर्बिटल एंटी सैटेलाइट मिसाइल सिस्टम (को-आर्बिटल एसैट) कहते हैं। केई एसैट को पृथ्वी से मिसाइल लांच करके लक्षित सैटेलाइट को उड़ाया जाता है जबकि को-आर्बिटल एसैट सैटेलाइट की तरह ही आर्बिट में चक्कर लगाते रहते हैं और खतरा महसूस होते टारगेटेड सैटेलाइट को उसी कक्षा में उड़ा देते हैं। भारत ने केई एसैट का सफल परीक्षण किया है। पृथ्वी से लांच किए गए एक मिसाइल ने बुधवार को 300 किमी ऊंचाई पर लोअर अर्थ आर्बिट में स्थापित अपने एक लाइव सैटेलाइट को उड़ा दिया।

जानें क्या है जियो और एलईओ

अंतरिक्ष में ओअर अर्थ आर्बिट (एलईओ) और जियोस्टेशनरी अर्थ आर्बिट (जियो) में ही सैटेलाइट स्थापित किए जाते हैं। कार्नेज एंडावमेंट फाॅर इंटरनेशनल पीस में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक, अप्रैल 2011 में जियो में 10 और एलईओ में 13 सैटेलाइट मौजूद थे। अभी तक अमेरिका, रूस, चीन और भारत सिर्फ एलईओ में ही सैटेलाइट को उड़ाने की क्षमता हासिल कर सके हैं। अभी तक दुनिया का कोई भी देश जियो में स्थापित किसी सैटेलाइट को उड़ाने की क्षमता विकसित नहीं कर सका है। चीन के पास एलईओ में 800 किमी तक ऊंचाई पर स्थापित सैटेलाइट को मार गिराने की क्षमता है जबकि भारत ने बुधवार को 3 मिनट में 300 किमी की ऊंचाई पर स्थापित एक सैटेलाइट को उड़ाने में कामयाबी हासिल की है। एक अनुमान के मुताबिक जियो में स्थापित किसी सैटेलाइट को उड़ाने के लिए मिसाइल को कम से कम 2500 किमी ऊंचाई तक पहुंचना होगा। साथ ही इस आर्बिट में तमाम जटिलताओं के बीच अपने लक्ष्य को भेदना भी काफी मुश्किल है।

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