संगठन ने उठाई आवाज
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (BMMA) की ओर से इस बात को लेकर मुस्लिम समुदायों और सरकार दोनों पर कदम उठाने को लेकर जबरदस्त तरीके से जोर दिया जा रहा है। संगठन की ओर से दोनों को सर्वेक्ष्ाण की एक-एक कॉपी भेजी गई है। इस क्रम में प्रधानमंत्री कार्यालय, महिलाओं के राष्ट्रीय आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और प्रख्यात न्यायविदों को इसकी एक-एक कॉपी भेजी गई है। ताकि सभी संगठन इसको ध्यान से पढ़ सकें और इस पर गौर कर सकें।  

मुस्लिम महिलाओं के साथ है अन्याय
65 सालों से मुल्ला और उनके गुर्गे इस मुद्दे के आसपास मंडराते नजर आए हैं। इसके बावजूद न तो इनमें से किसी ने इसमें सुधार की कोशिश की और न ही किसी और को करने को कहा। मुस्लिम धर्म और परंपरा के नाम पर सिर्फ यूनिफॉर्म कोर्ड लागू करके सुधार करने को अपना मकसद मानते हुए चले। ऐसे में इन सभी को जरूरत है समय रहते इस चेतावनी को देखने की। BMMA ने अपनी इस रिसर्च के लिए सिर्फ निचले तबके की मुस्लिम महिलाओं को चुना है। इनमें से ज्यादातर महिलाएं वो हैं, जो अशिक्षित हैं, आर्थिक रूप से अपने पिता या पति पर निर्भर हैं। ऐसी स्थितियों के साथ इनकी दशा काफी दयनीय है। इनमें से कई तो व्यक्तिगत रूप से परिवार से जुड़े कानूनों की मनमानी झेल रही हैं। इन मनमानियों में ज्यादातर महिलाएं तलाक, भत्ते और विरासत की लड़ाई लड़ रही हैं।

शाहबानों का मामला आया सामने
1985 में एक बुजुर्ग, अशिक्षित, निम्न मध्यम वर्गीय तलाकशुदा महिला शाहबानो के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ। बीते तीन दशकों से उसके विवाद में शायद ही थोड़ा-बहुत अंतर आया हो। अभी भी उसे पूरी तरह से न्याय और साधन नहीं मिले हैं। ऐसी जानकारी BMMA कार्यकर्ता जाकिया सोमान ने दी। उन जैसे लोगों के तनाव को देखते हुए इससे जुड़े कानून को कूटबद्ध करने की जरूरत है।  

मुस्लिमों जैसे कानून नहीं हैं और कहीं
जाकिया की साथी शोधकर्ता और लेखक नूरजहां सैफई कहती हैं कि मुस्लिम पुरुषों पर किसी भी तरह के नियम के लागू न होने से उनकी अकड़ में वृद्धि होती जा रही है। उनका कहना है कि मुस्लिम पुरुषों को एक से ज्यादा शादी करने की इजाजत है, जबकि हिंदू धर्म में ऐसा नहीं है। हिंदुओं और इसाइयों में सारे कानून संहिताबद्ध हैं। इसके इतर ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि जिसकी वजह से मुस्लिम कानूनों को संहिताबद्ध न किया जा सके। वहीं ज्यादातर देशों में कानून संहिताबद्ध ही हैं।    

सर्वे में आया सामने
इस सर्वे को और भी ज्यादा मजबूत बनाने के लिए संगठन की ओर से ऐसी मुस्लिम महिलाओं का आंकलन किया गया, जो किसी कानून में सुधार की चाह रखती हैं। इनमें करीब 92 प्रतिशत महिलाएं ऐसी रहीं, जो मौखिक रूप से तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर औरतों को खुद से अलग कर देने के विरोध में दिखीं। इनके अलावा 93 प्रतिशत महिलाएं तलाक से पहले अनिवार्य मध्यस्थता के खिलाफ और 91.7 प्रतिशत महिलाएं अपने पति को दूसरी पत्नी न रखने देने के पक्ष में मिलीं।    

आगे आना होगा किसी न किसी को
तीन बार तलाक बोलने के अलावा कई महिलाएं शादी के समय मेहर रस्म (एक तरह का दहेज) के खिलाफ दिखीं। संगठन की ओर से बताया गया कि मुस्लिम समुदाय में इस तरह के कई ऐसे कानून हैं, जिनमें सुधार करने के लिए सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। ये सर्वे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर ताहिर मोहम्मद की बात से पूरी तरह से सहमत है कि ये मुस्लिम बोर्ड सिर्फ अपनी खुद की बॉडी के अलावा अन्य किसी और का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उनका ऐसा कहना है कि वाकई बोर्ड को खत्म कर देना चाहिए। मुद्दा कोई भी हो, इसके सदस्य हमेशा ही उल्टा-सीधा बोलते हैं। संगठन की ओर से आवाज उठाई गई है कि मुस्लिम समुदाय में ऐसे कानूनों के साथ महिलाओं के साथ लंबे समय से अन्याय होता आ रहा है। अब वक्त आ गया है जब इन कानूनों में सुधार करके मुस्लिम महिलाओं का उद्धार किया जाना चाहिए। मेहेर, तीन बार तलाक बोलना, एक से ज्यादा शादी जैसे कानूनों के खिलाफ धार्मिक संगठन या सरकार को कदम आगे बढ़ाना ही होगा।

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