प्रमोद भार्गव (जर्नलिस्ट)। छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों से मुठभेड़ में 22 जवान शहीद हो गए और कई घायल हैं। ये जवान एसटीएफ और जिला आरक्षित गार्ड (डीआरजी) के सैनिक थे। डीआरजी के एक साथ इतने जवान पहली बार हताहत हुए हैं। नक्सली जवानों से हथियार भी लूटकर ले गए। प्रमोद भार्गव यह बलिदान इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि एक पखवाड़े के भीतर दूसरी बार सुरक्षाबलों को निशाने पर लिया गया है। इसके पहले नारायणपुर में नक्सलियों ने सुरक्षाबलों की एक बस को बारूदी सुरंग में विस्फोट कर उड़ा दिया था। इस हमले में पांच जवान शहीद हुए थे।

सुरक्षाबलों की आंखों में धूल झोंकने के लिए हिंसा मुक्ति संदेश

लगातार हुई इन दो घटनाओं से पता चलता है कि नक्सलियों के हौसले कितने बुलंद हैं। उनकी तरफ से हिंसा से मुक्ति के जो संकेत दिए गए थे, वे महज सुरक्षाबलों की आंखों में धूल झोंकने के लिए थे। शांति का पैगाम देकर नक्सली अपने संगठन की ताकत बढ़ाने और हथियार इकट्ठा करने में लगे रहे। इस तथ्य की पुष्टि इन हमलों से हुई है। हालांकि, इसमें कोई दो राय नहीं कि नक्सलियों की शक्ति व हमले कम हुए हैं, लेकिन उनके पास सूचनाएं हासिल करने का मुखबिर तंत्र अब भी बरकरार है। हमला करके बच निकलने की रणनीति बनाने में भी वे सक्षम हैं, इसीलिए वे अपनी कामयाबी का झंडा फहराए हुए हैं।

नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य व केंद्र सरकार का दावा

बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में नक्सली नेता हिडमा का बोलबाला है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा है, जिसके लिए अब सरकार को ठोस रणनीति बनाने की सख्त जरूरत है। नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य या चुनाव प्रक्रिया संपन्न होती है तो नक्सली उसमें रोड़ा अटकाते हैं। नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य व केंद्र सरकार दावा कर रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि छत्तीसगढ़ सरकार के विकास संबंधी विञ्जरूाापनों में दिए जा रहे आंकड़ पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदंडों को छूती दिख रही है, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश लग रहा है? बल्कि अब छत्तीसगढ़ नक्सली हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य बन गया है। अब बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी यहां मिल रहे हैं।

कांग्रेस नेता कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध खड़ा किया था सलवा जुडूम

कांग्रेस के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आए हैं। हालांकि, नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के ही कुर्तु विकासखंड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े होने लगे थे। नतीजतन, नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से दुश्मनी ठन गई। इस हमले में महेंद्र कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे, पर कांग्रेस ने 2018 के विस चुनाव में अपनी खोई शक्ति फिर से हासिल कर ली, पर नक्सलियों पर लगाम नहीं लग पाई।

यह तथाकथित आंदोलन खून से इबारत लिखने का ही बना हुआ है पर्याय

व्यवस्था बदलने के बहाने 1967 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी छोर पर नक्सलवादी ग्राम से यह खूनी आंदोलन शुरू हुआ था। तब इसे नए विचार और राजनीति का वाहक कुछ साम्यवादी नेता, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और दीपक प्रमाणिक मानवाधिकारवादियों ने माना था पर अंतत: माओवादी नक्सलवाद में बदला यह तथाकथित आंदोलन खून से इबारत लिखने का ही पर्याय बना हुआ है। जबकि इसके मूल उद्देश्यों में नौजवानों की बेकारी, बिहार में जाति तथा भूमि के सवाल पर कमजोर व निर्बलों का उत्थान, आंध्र प्रदेश और अविभाजित मध्य-प्रदेश के आदिवासियों का कल्याण तथा राजस्थान के श्रीनाथ मंदिर में आदिवासियों के प्रवेश शामिल थे। किंतु विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया है।

लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते माओवादी

बांग्लादेश, पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पंहुचाने की श्रृंखला बनाए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ बनाकर ऐसे ही षड्यंत्र रचकर वहां के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी तर्ज पर माओवाद को बढ़ाया जा रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियां नगरों से चलने वाले हथियारों और रसद की सप्लाई चेन का भी पर्दाफाश करने में कमोबेश नाकाम रही हैं। यदि एजेंसियां इस चेन की ही नाकेबंदी करने में कामयाब हो जाती हैं तो एक हद तक नक्सली बनाम माओवाद पर लगाम लग सकती है। फिलहाल माओवादी किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं। इसलिए जो भी उनके खिलाफ जाता है, उसकी बोलती बंद कर दी जाती है और अब इनको लेकर हमारे शासन व प्रशासन को एक्शन मोड में आने की जरूरत है।

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