डॉ. रमेश ठाकुर (जर्नलिस्ट)अमरोहा की शबनम को फांसी की सजा मिल जाने के बाद एक नई किस्म की बहस हिंदुस्तान में शुरू हो जाएगी। महिला अपराधों के उन सभी केसेज में जिरह के दौरान कोर्ट रूम्स में शबनम की फांसी का उदाहरण गूंजा करेगा। शबनम की दुहाई देकर वकील महिलाओं को फांसी देने की मांग जजों से किया करेंगे। कुल मिलाकर शबनम की फांसी एक उदाहरण तो बनेगी ही, साथ ही महिला अपराधियों में डर व महिला अपराध रोकने में काफी हद तक वाहक भी बनेगी।

फूलनदेवी का आतंक शायद ही कोई भूले

हिंदुस्तान में एक समय था, जब बड़े अपराधों में महिलाओं का बोलबाला भी कुछ कम नहीं था। बीहड़ में फूलनदेवी का आतंक हो या सीमा परिहार जैसी दस्यु सुंदरी का खौफ। शायद ही इन्हें कोई भूले। वैसे, उतने खौफनाक अपराध बीते कुछ सालों में कम हुए, पर दूसरे किस्म के क्राइम्स की बाढ़ आ गई। जैसे, प्रॉपर्टी के नाम पर अवैध धंधेबाजी, शादी-ब्याह के नाम पर ठगी, स्मैक व नशीले पदार्थ बेचने आदि में इनकी सक्रियता ज्यादा होने लगी है।

बच गईं या फिर इन्हें बचा लिया गया

देश के कई जाने-माने अपराधों में ढेरों नाम ऐसे हैं, जिनका अपराध फांसी के लायक रहा है, लेकिन भारत के उदार सिस्टम की वजह से ये बच गईं या फिर इन्हें बचा लिया गया। आजादी से अब तक खुदा-न-खास्ता किसी महिला को फांसी दी गई होती, तो निश्चित रूप से बड़े अपराध में शामिल कई कातिल महिलाएं अभी तक फांसी के तख्तों पर झूल गईं होतीं।

अपराध ने एक पूरे परिवार का कर दिया अंत

अमरोहा की शबनम ने साल 2008 के अप्रैल महीने में प्रेमी की मदद से अपने पूरे परिवार को मौत दे दी थी। कुल्हाड़ी से सभी को काटते वक्त उसे किसी पर भी रत्ती भर रहम नहीं आया कि वह अपनों का ही खून बहा रही है। उसका अपराध निश्चित रूप से दया करने वाला नहीं है। किसी का प्यार पाने के लिए वह अपनों की कैसे बैरन बनी, जिसका खुलासा उसने घटना के कुछ समय बाद किया भी और उसे अपराध बोध भी हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके अपराध ने एक पूरे परिवार का अंत कर दिया था। 12-13 साल केस निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हिचकोले मारता रहा। दया याचिका राष्ट्रपति के चौखट तक भी पहुंची, लेकिन कोर्ट द्वारा मुर्करर फांसी की सजा बरकरार रही। फांसी देने का रास्ता लगभग साफ है।

अंग्रेज किसी महिला को फांसी नहीं दे पाए

शबनम को उत्तर प्रदेश के मथुरा में बने उसी फांसीघर में ही फांसी दी जाने की उम्मीद है, जो बीते डेढ़ सौ सालों से अपने पहले मेहमान का इंतजार कर रहा है। अंग्रेजी हुकूमत ने वर्ष 1871 में मथुरा में पहला महिला फांसीघर बनाया था। आजादी की लड़ाई लड़ने वाली तब कई महिला क्रांतिकारियों को यहां फांसी देना अंग्रेजों ने मुर्करर किया था, लेकिन महात्मा गांधी व अन्य नेताओं के विरोध में अंग्रेज किसी महिला को फांसी नहीं दे पाए। उस फांसीघर का शायद पहली बार इस्तेमाल होगा। शबनम को फांसी देने की तारीख अभी तय नहीं हुई है। ना ही कोई अंतिम आदेश आया है, लेकिन यह तय है कि फांसी उसी घर में दी जाएगी।

कई दिलों में इस खबर को लेकर दर्द

गौरतलब है, समाज की संवेदनाएं, उदारता और विनम्र-आदरभाव हमेशा महिलाओं के प्रति औरों से ज्यादा रहा है। ऐसा दौर जब महिलाएं डिफरेंट एक्टिविटीज जैसे एजुकेशन, पॉलिटिक्स, मीडिया, आर्ट एंड कल्चर, सेवा क्षेत्र, साइंस एंड टेक्नोलॉजी की फील्ड में विजय पताका फहरा रही हैं, तब एक महिला अपराधी को सूली पर चढ़ाने की तैयारी हो रही हो। निश्चित रूप से कई दिलों में इस खबर को लेकर दर्द होगा, पर शबनम का अपराध माफी लायक भी तो नहीं था।

कानून सभी के लिए एक हो

ऐसे केसेज में उदारता दिखाने का मतलब है, इस तरह के केसेज को बढ़ावा देना, अपराधियों को बेखौफ बनाना होगा। न्यायालय द्वारा सजा की ऐसी व्यवस्था हर किसी के एक समान होने की वकालत करती है, फिर चाहे वो मेल हो या फीमेल। आज के वक्त में जरूरत है कि कानून सभी के लिए एक हो। कोई फर्क नही पड़ता कि किसी बेकसूर को मौत की नींद सुलाने वाला या कोई जघन्य अपराध करने वाला अपराधी पुरुष है या महिला।

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