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KANPUR: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, इन तीन सूत्रों के संबंध में आपका क्या कहना है?

सूत्र तो जिंदगी में एक ही है- बुरे मत होओ। ये तीनों सूत्र तो बहुत बाहरी हैं। भीतरी सूत्र तो- बुरे मत होओ- वही है। अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न देखे, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न सुने, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न बोले, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा आदमी सिर्फ पागल हो जाएगा क्योंकि भीतर बुरा होगा! अगर बुरे को देख लेता तो थोड़ी राहत मिलती, वह भी नहीं मिलेगी। अगर बुरे को बोल लेता तो थोड़ा बाहर निकल जाता, भीतर बुरा थोड़ा कम हो जाता, वह भी नहीं होगा। अगर बुरे को सुन लेता तो भी थोड़ी तृप्ति मिलती, वह भी नहीं हो सकेगी। भीतर बुरा अतृप्त रह जाएगानहीं, असली सवाल यह नहीं है। लेकिन आदमी हमेशा बाहर की तरफ से सोचता है।

कैसे बुरे न हों

असली सवाल है होने का, असली सवाल करने का नहीं है। मैं क्या हूं, यह सवाल है। मैं क्या करता हूं, यह गौण है क्योंकि मैं जो हूं, मेरा करना उसी से निकलता है। लेकिन अब तक की सारी शिक्षाएं मनुष्य पर जोर नहीं देतीं, मनुष्य के करने पर जोर देती हैं। करना गौण है। भीतर मनुष्य क्या है, उससे करना निकलता है। हम जैसे हैं वही हमसे किया जाता है लेकिन हम चाहें तो धोखा दे सकते हैं। बुराई भीतर दबाई जा सकती है। दबाई हुई बुराई दोगुनी हो जाती है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बुरा करें। मैं यह कह रहा हूं, बुराई को दबाने से बुराई से मुक्त नहीं हुआ जा सकता! बुरे होने को ही रूपांतरित होना है इसलिए सूत्र तो एक है कि बुरे न हों। लेकिन बुरे कैसे न होंगे, बुरे हम हैं!

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बुराई के बाहर छलांग लगाएं

इसलिए इस बुरे होने को जानना पड़े, जागना पड़े, पहचानना पड़े। यही मैं कह रहा हूं कि यदि हम अपनी बुराई को पूरी तरह जान लें तो बुराई के बाहर छलांग लग सकती है। लेकिन हम बुराई को जान ही नहीं पाते, क्योंकि हम तो यह सोचते हैं कि बुराई कहीं बाहर से आ रही है। बुरे को देखेंगे तो बुरे हो जाएंगे; बुरे को सुनेंगे तो बुरे हो जाएंगे; बुरा बोलेंगे तो बुरे हो जाएंगे। हम तो यह सोचते हैं कि बुराई जैसे कहीं बाहर से भीतर की तरफ आ रही है। हम तो अच्छे हैं, बुराई जैसे बाहर से आ रही है।यह धोखा है! बुराई बाहर से नहीं आती; बुराई भीतर है! भीतर से बाहर की तरफ जाती है बुराई। गुलाब में कांटे बाहर से नहीं आते, भीतर की तरफ से आते हैं। फूल भी भीतर की तरफ से आता है, वह भी बाहर से नहीं आता। भलाई भी भीतर से आती है, बुराई भी भीतर से आती है; कांटे भी भीतर से, फूल भी भीतर से। इसलिए बहुत महत्वपूर्ण यह जानना है कि भीतर मैं क्या हूं? वहां जो मैं हूं, उसकी पहचान ही परिवर्तन लाती है, क्रांति लाती है।

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