इन दोनों बातों को समझ लेना जरूरी है। मैंने यह नहीं कहा कि सभी प्रणाम भय के प्रणाम हैं। मैंने यह भी नहीं कहा कि सभी प्रार्थनाएं भय की प्रार्थनाएं हैं। मैंने इतना ही कहा कि पहचानने की कोशिश करना है कि जो प्रार्थना कर रहे हो, वह भय की तो नहीं है? जो प्रणाम कर रहे हो, वह भय का तो नहीं है? जो प्रेम कर रहे हो उसके भीतर भय तो नहीं है? सौ में निन्यानबे मौके पर होता है, क्योंकि आदमी भय पर खड़ा है और चूंकि भय पर खड़ा है, इसलिए उसकी जिंदगी में कभी वह घड़ी ही नहीं आ पाती, जब वह बिना भय के भी कुछ कर सकें। कोई घड़ी नहीं आ पाती, जब हम बिना भय के कुछ कर सकें।

अगर हम रास्ते पर भी किसी आदमी को प्रणाम करते हैं, नमस्कार करते हैं, तो भी भय के कारण ही करते हैं, अकारण नहीं करते, लेकिन अकारण प्रणाम करने का आनंद ही अलग है, जब कोई कारण ही नहीं है। अगर आपने कभी कारण से नमस्कार किया है तो नमस्कार बेकार हो गई। लेकिन अगर आपने बिना कारण किया है, सिर्फ इसलिए कि दूसरी तरफ भी वही है जो इस तरफ है, दूसरी तरफ भी वही मौजूद है जो सब तरफ मौजूद है, अगर ये हाथ किसी भी भय के बिना जुड़े हैं, तो हाथ जुड़ने का जो आनंद है उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।

मैंने आपसे कहा कि अक्सर हम जब पैरों में सिर रखते हैं, तो भय के कारण रखते हैं, लेकिन मैंने यह नहीं कहा कि सब सिर भय के कारण ही रखे जाते हैं। कभी कोई सिर बहुत प्रेम के कारण भी रखा जाता है, लेकिन तब कोई भय नहीं है। सच तो यह है कि जहां प्रेम है वहां भय नहीं है। मैंने सुना है कि एक युवक ने विवाह किया नया-नया और अपनी पत्नी को लेकर वह यात्रा पर निकला। वह एक जहाज पर सवार हुआ। वह जहाज चल रहा है। जोर का तूफान आ गया है और जहाज डगमगाने लगा है और अब डूबा, अब डूबा होने लगा है। वह युवक शांत बैठा है। सारे जहाज के लोग भागने लगे हैं, घबराने लगे हैं और उसकी पत्नी थर-थर कांप रही है और उसने उस युवक को कहा, आप घबरा नहीं रहे? आप डर नहीं रहे, भयभीत नहीं हो रहे?

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जहाज डूबने के करीब है, आपको भय नहीं लगता? उस युवक ने अपनी कमर से बंधी तलवार खींच ली है और उसे अपनी प्रेयसी के, अपनी पत्नी के कंधे पर रख दी है नंगी तलवार और वह पत्नी हंस रही है। उस युवक ने कहा, तुझे भय नहीं लगता? तलवार नंगी तेरे कंधे पर है, भय नहीं लगता? उसने कहा, हाथ में तुम्हारे तलवार हो तो मुझे भय कैसा! तो उस युवक ने कहा, परमात्मा के हाथ में तूफान है और जब से उससे अपनी पहचान हुई है तब से कोई भय नहीं है। कैसा भय! जहां प्रेम है, वहां कोई भय नहीं है। फिर नंगी तलवार भी कंधे पर हो तो भय नहीं है। हाथ जोड़ने की तो बात अलग है, नंगी तलवार भी कंधे पर कोई रखे तो भी भय नहीं है, लेकिन प्रेम हो तब! तो एक तो वह प्रणाम है जो प्रेम से निकलता है और एक वह प्रणाम है जो भय से निकलता है।

जहां प्रेम है, वहां भय नहीं। फिर नंगी तलवार भी कंधे पर हो तो भय नहीं है। ऐसे में एक वह प्रणाम है जो प्रेम से निकलता है और दूजा वह प्रणाम है जो भय से निकलता है।

-ओशो

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