रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र, तीनों भाई-बहन स्वयं चलकर भक्तों के बीच आते हैं और समानता व सद्भाव का संदेश देते हैं। तभी तो इनके विग्रहों के हैं विशेष अर्थ…

ओडिशा के समुद्र तट पर जगन्नाथ मंदिर में बहन सुभद्रा तथा भाई बलभद्र के साथ विराजते हैं विग्रह-रूप में भगवान जगन्नाथ। आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन पूजा-अर्चना के बाद ये तीनों भाई-बहन मंदिर से निकलकर विराट रथों पर सवार होते हैं और जाते हैं आम लोगों के बीच।

इसके माध्यम से वे अपने भक्तों को संदेश देते हैं कि ईश्वर की नजर में न छोटा है न कोई बड़ा, न कोई अमीर है और न गरीब, उनकी नजर में सभी बराबर हैं। इसलिए वे भी सभी के प्रति एकसमान भाव रखें।

जगन्नाथ मंदिर से गुंडीचा मंदिर और फिर जगन्नाथ मंदिर की यह यात्रा नौ दिनों तक चलती है। इस यात्रा को गुडीचा महोत्सव भी कहते हैं।

रथ-यात्रा विशेष: मुक्तिदायिनी है भगवान जगन्नाथ का धाम,जहां मिट जाते हैं सारे भेद

मुक्तिदायिनी है धाम

चारों धामों में सबसे प्रसिद्ध धाम है जगन्नाथपुरी। ब्रह्मपुराण में इसे नीलाचल तथा पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। यहां की भूमि पापनाशिनी, मुक्तिदायिनी एवं परम पवित्र मानी जाती है। मान्यता है कि यहां भगवान श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा तथा बड़े भाई बलराम के साथ दारु (काष्ठ) विग्रह के रूप में विराजते हैं। संपूर्ण सृष्टि के स्वामी माने जाने के कारण श्रीकृष्ण जगन्नाथ कहलाते हैं।

स्कंद पुराण के वैष्णव खंड, ब्रह्मपुराण, बृहद्नारदीय पुराण तथा देवी भागवत में भी इस क्षेत्र की महिमा बताई गई है।

मिट जाते हैं भेद

तीनों देवताओं के विग्रह को रथ में स्थापित कर उत्सव मनाते हुए रथ का प्रस्थान ही रथ-यात्रा के नाम से जाना जाता है। जब विग्रह रूपी बलभद्र, सुभद्रा और स्वयं जगन्नाथ रथों पर सवार होकर निकलते हैं, तो भक्तों के बीच रथों को खींचने और अपने आराध्य की एक झलक पाने के लिए होड़ लग जाती है। उस समय अमीर-गरीब, निर्धन-धनी, निर्बल-सबल सभी का भेद मिट जाता है।

दरअसल, भक्तगण मानते हैं कि रथ पर सवार श्रीकृष्ण, सुभद्रा एवं बलराम जी का जो दर्शन करता है, उस पर कभी-भी विपत्ति नहीं आती। पुरी मंदिर से भगवान निकलकर गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। गुंडीचा मंदिर में एक सप्ताह विश्राम कर जब रथ लौटकर मंदिर की ओर आता है, तो इसे उल्टी रथ-यात्रा कहा जाता है।

रथ-यात्रा विशेष: मुक्तिदायिनी है भगवान जगन्नाथ का धाम,जहां मिट जाते हैं सारे भेद

विग्रह की कथा

ब्रह्मपुराण के अनुसार, मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा ने खुद जगन्नाथ मंदिर का निर्माण किया था। माना जाता है कि उस समय के राजा इंद्रद्युम्न के पास विश्वकर्मा स्वयं आए थे। उन्होंने एक वृद्ध व्यक्ति का रूप धरा और मंदिर बनाना शुरू कर दिया। साथ ही यह शर्त भी रखी कि मंदिर तैयार होने के पहले द्वार को खोला नहीं जाए। रानी के आग्रह पर जब द्वार खोला गया, तो वहां कोई नहीं था और वहां भगवान की अधूरी मूर्तियां रखी हुई थीं। इसलिए आज भी भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की अधूरी मूर्ति होती है। गुंडीचा मंदिर के पास मूर्ति निर्माण हुआ था, इसलिए वह स्थान आज भी ब्रह्मपुर या जनकपुर कहलाता है।

-गिरिजाशंकर शास्त्री

(लेखक बीएचयू के ज्योतिष विभाग में प्रोफेसर हैं)