- पहले घरों में बनती थी गुझिया और ढेर सारे पकवान

- नहीं दिख रहा पहले जैसे उत्साह और तमाम परंपराएं

- अब नहीं सजतीं होली पर पहले जैसी महफिलें

Meerut । आधुनिकता के परिवेश में होली का स्वरूप बदल रहा है। हमारी परंपराएं तेजी से खत्म हो रही हैं। पहले परिवारों में महिलाएं मिलकर गुझिया बनाया करती थी। हर घर में होली पर महफिलें सजती थी। इसके साथ ही युवकों की टोलियां घरों से निकलकर होली के गीत गाया करती थी। लेकिन अब होली के त्योहार में बदलाव देखने को मिल रहा है।

नहीं सजती फाल्गुन की महफिलें

आज के दौर में खासकर ग्रामीण इलाकों में भी फाल्गुन माह का अंदाज बदलने लगा है। एक दशक पहले तक माघ महीने से ही गांव में फाल्गुन की आहट मिलने लगती थी, लेकिन आज के जमाने में फाल्गुन माह में भी गांव से ऐसी महफिलें लगभग गायब हो गई हैं.आधुनिकता की दौड़ में परंपराएं सिसकने लगी हैं। शहर की बजाए अब गांवों में भी फाग के गीत लगभग गायब से हो गए हैं। सदर निवासी उर्वशी ने बताया कि पहले हम गांव में जाकर होली मनाते थे। लेकिन अब तो वहां भी पहले जैसी बात नहीं रही। रजबन निवासी सुषमा बताती हैं कि अब होली के त्योहार में काफी बदलाव आ गया है।

दम तोड़ रहीं परंपराएं

पहले होली के दिन अलग-अलग युवकों की टोलियां घर-घर घूमकर गीत गाती थी। बदले में उन पर रंगों की बरसात की जाती थी। साथ ही उनका अभिवादन भी कई पकवानों से किया जाता था। लेकिन अब यह परंपरा दम तोड़ रही है। कुछ लोग इसकी वजह आपसी दुश्मनी, भेदभाव और बढ़ते वैमनस्य को मानते हैं।

घरों में नहीं बनती गुझिया

अब तो बाजार से ही बनी बनाई गुझिया, बताशे और पकवान लाए जाते हैं। जबकि पहले होली से दस दिन पहले ही घरों से गुझिया, मटरी बनने की महक आया करती थी। गली मोहल्ले की महिलाएं मिलकर एक साथ बैठकर एक दूसरे के पकवान बनाती थी। हंसी ठिठोली करती महिलाओं का आपसी प्यार मेल मिलाप भी देखने को मिलता था। लेकिन अब वो बात देखने को कम ही मिल रही है।

वर्जन

समय की व्यस्तता के चलते अब महिलाएं बाजार से ही सामान मंगाती है। पहले बेटियों के घर सामान जाता था तो सभी को दिखाया जाता था, सलाह भी ली जाती थी। लेकिन अब तो त्योहारों का अता-पता नहीं है।

रीना सिंघल, सदर

हमारे समय में दस दिन पहले ही होली की तैयारियां होती थी। आपस में मिलकर पकवान बनाना, हंसी ठिठोली भी होती थी। लेकिन अब तो सब बाजार से ही बना बनाया आता है। हमारे यहां तो बहुओं ने परंपरा जीवित रखी है। लेकिन वैसे देखा जाए तो आपस में प्यार मेल मिलाप खत्म हो गया है।

ललतेश सिंघल, सदर

पहले युवकों की टोलियां निकला करती थी। महिलाएं घर में कई दिन पहले ही तैयारियां शुरु कर देती थी। लेकिन अब न वो टोलियां हैं और न ही महिलाओं का मेल मिलाप। पहले जैसे त्योहार अब नहीं रहें है।

सारिका अग्रवाल, शास्त्रीनगर

बड़ों का प्यार, पड़ोसी से मिलकर आपस में गपशप और पकवान बनाने की तैयारी करते थे। लेकिन अब तो त्योहारों का पता नहीं लगता है। आधुनिकता की दौड़ में अब सब कुछ आर्टिफिशिल आने लगा है।

अनुपमा, रुड़की रोड