- जर्मनी की वॉच कंपनी से मेरठ आया था अब्दुल अजीज

- पहचान की तलाश में खप गई अजीज की चार पीढि़यां

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Meerut: लगभग सौ साल पहले अंग्रेजी हुकूमत में जब घंटाघर की घड़ी अचानक बंद हो गई तो आस-पास के मुल्कों में घड़ी को सुधारने वाला कोई कारीगर न मिल सका। महीनों बीत गए घड़ी की सुइयां हिल न पाई। मेरठ के तत्कालीन कलक्टर जेम्स पियरसन ने तब जर्मनी की वेस्टर्न वॉच कंपनी से संपर्क साधा। कलक्टर ने कंपनी को पत्र लिखकर कोई कुशल कारीगर मेरठ भेजने की गुजारिश की। कंपनी ने अपने जवाब में लिखा कि मेरठ का ही हाजी अब्दुल अजीज एक बेहतरीन घड़ी साज है, क्यों न अब्दुल को ही मेरठ भेजा जाए। अब्दुल अजीज के मेरठ पहुंचने पर कलक्टर पियरसन ने उन्हें घंटाघर में ही रहकर घड़ी की देखभाल करने की जिम्मेदारी दे डाली। तब से अब तक अब्दुल अजीज की चार पीढि़यां शहर की पहचान को जिंदा रखे हैं।

गुमनामी का चेहरा

अंग्रेजी हुकूमत में शुरू हुई अब्दुल अजीज परिवार की देश सेवा आज तक बरकरार चली आ रही है। अब्दुल अजीज का पौत्र समशुल अजीज आज भी अपने पूर्वजों की विरासती भक्ति भाव को जिंदा रखे हैं। कोई औलाद न होने व पत्नी की मौत के गम ने समशुल को तोड़ सा दिया है। फिर भी रोज सुबह सवेरे 65 वर्षीय शमसुल घंटाघर पहुंचकर पूरे परिसर की सफाई करते हैं। यही नहीं शमसुल ने अंग्रेजी समय के बहुत सारे उर्दू और अंग्रेजी के उपन्यास भी संजो कर रखे हुए हैं। शमसुल बताते हैं कि आज भाग दौड़ भरी जिंदगी में इन पुराने उपन्यासों का खरीदार कोई नहीं है।

कुछ नहीं मिलता वेतन

चौंकाने वाली बात यह है कि अंग्रेजी हुकूमत से घंटाघर की देखभाल कर रहे अब्दुल अजीज परिवार को इसके लिए न तो कोई वेतन मिलता है और न कोई आर्थिक मदद। बावजूद इसके यह परिवार अपनी विरासत को ही अपनी जिम्मेदारी मानते हुए निभाता आ रहा है। इन सौ सालों में किसी भी सरकार ने इस परिवार के वेतन या आर्थिक मदद के बारे में नहीं सोचा। हालांकि समशुल ने इसके लिए कई बार आला अधिकारियों के दफ्तर में गुहार लगाई, लेकिन सब बेकार साबित हुई।

गुमनामी में दबी पहचान

इससे सरकारी तंत्र की मसरूफियत कहें या प्रशासनिक तंत्र की उदासीनता कि अजीज परिवार आज तक गुमनामी की जिंदगी बसर करता आ रहा है। किसी तरह की मदद तो दूर कभी किसी स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस पर इस परिवार के शख्स का नाम तक नहीं पुकारा गया। गुमनामी की बात पर भावुक होते हुए समशुल बताते हैं कि उनको दुख इस बात का है कि उनके दादा और परिवार के योगदान के बारे में कोई भी नहीं जानता।

मैं अपनी पीढ़ी का आखिरी वारिश हूं। मेरी भी आंखें किसी समय बंद हो सकती हैं। मेरी मौत के बाद मेरे साथ ही हमारे योगदान का इतिहास दफन हो जाएगा। कोई मदद न सही कम से कम योगदान की कहानी को जन मानस तक तो पहुंच जाए।

-अब्दुल अजीज