अगर वॉल स्ट्रीट के पूर्व निवेशक फ़्रैंक पार्टनॉय की मानें तो हां, लंच के लिए लिया गया ब्रेक हमारी काम करने की क्षमता को बढ़ा सकता है.

ज़्यादातर कामकाजी लोग लंच को ज़्यादा तवज्जो नहीं देते. कभी अपनी डेस्क पर सैंडविच मंगा लेते हैं तो किसी सहकर्मी के साथ सलाद खाकर ही रह जाते हैं और कभी-कभी तो लंच छोड़ ही देते हैं.

ये मानकर चला जाता है सुबह का नाश्ता दिन का सबसे अहम भोजन है और रात का भोजन लोग लुत्फ़ लेकर खाते हैं और लंच लिया न लिया ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.

लंच पर तकनीक की भी मार पड़ी है. ईमेल, सोशल मीडिया, 24सों घंटे चलने वाले समाचारों ने लंच को प्राथमिकता में पीछे धकेल दिया है.

भोजन करते वक्त भी हम ज्यादातर अपने हाथ में रखे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से खेलते रहते हैं. चुपचाप खाना खाते हुए कुछ सोचना अब कम होता जा रहा है.

Lady taking lunch


ब्रेक कितना ज़रूरी
तेज़ी से भागते आधुनिक जीवन में अब ये सवाल अहम हो गया है कि लंच के लिए ब्रेक होना चाहिए या नहीं.

और ये भी कि क्या नियोक्ताओं को लंच ब्रेक की जगह कामगारों को कुछ और सुविधाएं देनी चाहिए जैसे कि कुछ देशों में सब्सिडी, जिम और डॉक्टर के पास जाने जैसी सुविधाएं दी जाती हैं.

कहा जाता है कि लंच के दौरान आप काम से थोड़ा विराम लेकर चिंतन करते हैं, चीज़ों को बेहतर बनाने की दिशा में काम करते हैं.

अगर कोई व्यक्ति लगातार काम में डूबा रहा, उसे सांस लेने की फ़ुर्सत भी नहीं मिले तो आखिरकार इससे व्यक्ति की उत्पादकता बढ़ती है या घट जाती है?

समय की कमी ने लोगों को फास्ट फ़ूड का आदि बना दिया है. हाल के शोध से पता चला है कि फास्ट फूड का हमारी सोच पर हानिकारक असर पड़ता है.

उदाहरण के लिए टोरंटो विश्वविद्यालय के मनोविश्लेषक स्टैनफोर्ड डेवो ने शोध के ज़रिए ये दर्शाया है कि महज़ फास्ट फूड को लो देख लेने से लोगों की प्रतिक्रिया की रफ्तार पहले के मुकाबले और बढ़ जाती है.

Fast food


फास्ट फ़ूड
लंच के समय शहरों में फास्ट फूड रेस्त्रां भरे रहते हैं. इन फास्ट फूड रेस्त्रां में खानेवाले लोग मैकडॉनल्ड के स्लोगन की तरह सोच सकते हैं कि ब्रेक पर उनका हक बनता है लेकिन हक़ीक़त ये है कि ब्रेक का मौक़ा उन्हें नहीं मिल पाता.

समय की कमी के कारण लोग फास्ट फूड का चुनाव करते हैं जिसका हमारी कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है. ऐसे में अगर लंच ब्रेक अनिवार्य कर दिया जाए तो इसका अच्छा प्रभाव हो सकता है.

1990 के दशक में मॉर्गन स्टैनली की टोक्यो शाखा में हर दिन ट्रेडिंग के दौरान 90 मिनट का ब्रेक होता था. इस ब्रेक का ट्रेडिंग कारोबार पर अच्छा असर देखने को मिला करता था.

ब्रेक के दौरान लोग ट्रेडिंग को लेकर तार्किक चिंतन करते थे इससे तनाव के दौरान दिमाग़ को शांत रखने में भी मदद मिलती थी.

ऐतिहासिक रूप से हांगकांग, सिंगापुर जैसे शेयर बाज़ारों में लंच ब्रेक के फायदे महसूस किए गए हैं लेकिन अब एशियाई शेयर बाज़ार लगातार कारोबार के पश्चिमी मॉडल की तरफ़ झुकते जा रहे हैं और लंच ब्रेक की अवधि कम करते जा रहे हैं.

Lady eating food


अविवाहितों का हित
अनिवार्य लंच ब्रेक अविवाहित लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती है. उस दौरान उनके पास इतना समय होगा कि वो अपने भावी जीवनसाथी के साथ कुछ वक्त बिता सकें जिसका मौक़ा आमतौर पर शाम में नहीं मिल पाता.

और फिर डिनर पर किसी पुरुष या महिला मित्र के साथ जाना जोखिम भरा भी हो सकता है क्योंकि अगर बात नहीं बनी तो लोग जल्दी वहां से जाना चाहेंगे लेकिन डिनर की शर्त की वजह से ऐसा करना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा.

आर्थिक विकास का मतलब ये होना चाहिए था कि लोगों के पास फुर्सत के मौक़े थोड़े ज्यादा हों लेकिन हो ये रहा है कि लोगों को और ज्यादा काम करना पड़ रहा है. अगर अनिवार्य ब्रेक का नियम लागू हो जाए तो ये ट्रेंड बदल सकता है.

लंच के 90 मिनट को अगर तीन शिफ्टों में (11:30-13:00; 1200-13:30 और 12:30-14:00) लागू किया जाए तो दफ्तर का काम प्रभावित नहीं होगा जैसा कि स्कूलों में किया जाता है.

इसीलिए हमारे नेता अगर आर्थिक विकास और उत्पादकता बढ़ाना चाहते हैं तो उन्हें लंच ब्रेक को नीतिगत प्रयोग के रुप में आज़माना होगा जो कि राजकोषीय खर्चे से ज्यादा सरल और मौद्रिक निवेश से कम जोखिम भरा साबित हो सकता है.