वर्षो बाद जन्माष्टमी पर है रोहिणी नक्षत्र का पूर्णकालिक संयोग

विशेष फलदायी है ये संयोग, वैष्णव व स्मार्त एक साथ मनाएंगे जन्माष्टमी

ALLAHABAD: भगवान श्री कृष्ण जन्मोत्सव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। मंदिरों से लेकर घरों तक में भगवान के जन्मोत्सव को सेलिब्रेट करने के लिए हर कोई तैयारियों में जुटा हुआ है। इस बार की जन्माष्टमी भी बेहद खास है। सालों में ऐसा मौका आता है, जब सूर्योदय से लेकर देर रात्रि तक अष्टमी हो और पूरे समय रोहिणी नक्षत्र लगा हो। इस संयोग के कारण इस बार वैष्णव व स्मार्त संप्रदाय के लोग एक साथ जन्माष्टमी का उत्सव मनाएंगे। पांच सितम्बर को पड़ रही जन्माष्टमी के मौके पर मंदिरों में भी भव्य तैयारियां की गई हैं। जन्माष्टमी को कृष्णष्टमी, गोकुलाष्टमी, रोहिणी अष्टमी, श्री कृष्ण जयंती और श्री जयंती भी कहा जाता है।

वेदों में चार रात्रियों को है महत्व

वेदों व शास्त्रों में चार रात्रि का विशेष महत्व है। ज्योतिषाचार्य एवं वास्तुशास्त्री आचार्य संदीप बहोरे बताते हैं कि इन चार रात्रियों में दीपावली को काल रात्रि, शिवरात्रि को महारात्रि, श्री कष्णजन्माष्टमी को मोह रात्रि और होली को अहो रात्रि कहा जाता है। श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। जिनके जन्म के संयोग मात्र से बंदीगृह के सभी बंधन स्वत खुल गए। सभी पहरेदार घोर निद्रा में सो गए और स्वयं मा यमुना जिनके चरण स्पर्श करने को आतुर हो उठीं। उस भगवान श्री कृष्ण को सम्पूर्ण श्रृष्टि को मोह लेने वाला अवतार माना गया है। इसी कारण जन्माष्टमी की रात्रि को मोह रात्रि कहते हैं। इस रात योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह माया से आसक्ति हटती है। यही कारण है कि जन्माष्टमी व्रत को व्रतराज कहा जाता है। जिसके सविधि पालन से प्राणी अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाले महान पुण्य प्राप्त कर सकता है।

जन्माष्टमी व्रत का है विशेष महत्व

ज्योतिषाचार्य अमित बहोरे बताते हैं कि अष्टमी दो प्रकार की होती है। पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाती है। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अत: उसमें प्रयत्‍‌न से उपवास करना चाहिए। मदन रत्‍‌न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। शास्त्रों के अनुसार इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाले को एक सुयोग्य, संस्कारी, दिव्य संतान की प्राप्ति होती है। कुंडली के सारे दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाते हैं और उनके पितरों को नारायण स्वयं अपने हाथों से जल दे के मुक्तिधाम प्रदान करते हैं। स्कंद पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है।

ऐसे करें जन्माष्टमी पूजन

जन्माष्टमी के दिन प्रात: जल्दी उठें और नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ वस्त्र धारण करें। इसके बाद पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत का संकल्प लें। इसके बाद माता देवकी और भगवान श्रीकृष्ण की सोने, चांदी, तांबा, पीतल अथवा मिट्टी की (यथाशक्ति) मूर्ति या चित्र पालने में स्थापित करें। भगवान श्रीकृष्ण को नए वस्त्र अर्पित करें। इसके बाद सोलह उपचारों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करें। पूजन में देवकी, वासुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा, देवकी और लक्ष्मी आदि देवताओं के नाम जपें। भगवान श्रीकृष्ण को पुष्पांजलि अर्पित करें। रात्रि में 12 बजे के बाद श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। लड्डू गोपाल को झूला झुलाएं। पंचामृत में तुलसी डालकर व माखन मिश्री का भोग लगाएं। इसके अलावा यथाशक्ति अन्य प्रसाद और फल आदि का भोग लगाएं। श्रीकृष्ण की आरती करें और रात्रि में शेष समय भजन, स्तोत्र, भगवतगीता का पाठ करें। अगली सुबह स्नान कर जिस तिथि एवं नक्षत्र में व्रत किया हो, उसकी समाप्ति पर व्रत पूर्ण करें।