दिव्यता एक हंसी-खेल की तरह है। यह उसी समुद्र की मछली की तरह है, जो समुद्र की खोज कर रही है। दिव्यता हमारी आत्मा के केंद्र में है, अपनी आत्मा के अंदर जाने और वहां से अपना जीवन जीने की तरह से है। वह अपने मस्तिष्क से हृदय की तरफ की यात्रा है।
श्री श्री रविशंकर जी

एक बार सागर की मछलियों का सम्मेलन हुआ। वे वहां इसलिए एकत्रित हुई थीं कि इस बात पर विचार-विमर्श कर सकें कि उनमें से किसने सागर को देखा है। उनमें से कोई भी यह नहीं कह सकी कि वास्तव में उसने सागर को देखा था। तब एक मछली ने कहा, 'मेरे विचार से मेरे परदादा ने समुद्र देखा था। दूसरी मछली ने कहा, 'हां मैंने भी इसके बारे में सुना है। तीसरी मछली बोली, 'हां वास्तव में उसके परदादा ने सागर देखा था। फिर उन्होंने एक बड़ा सा मंदिर बनाया और उस मछली के परदादा की एक मूर्ति स्थापित की। सबने कहा, 'इन्होंने सागर देखा था. वे सागर से जुड़े हुए थे।

ठीक यही बात उन लोगों के साथ भी है, जो साधना के पथ पर चल रहे हैं और दिव्यता को जानने के लिए उत्सुक हैं। दिव्यता क्या है? दिव्यता एक हंसी-खेल की तरह है। यह उसी समुद्र की मछली की तरह है, जो समुद्र की खोज कर रही है। दिव्यता हमारी आत्मा के केंद्र में है, अपनी आत्मा के अंदर जाने और वहां से अपना जीवन जीने की तरह से है। हम सभी इस संसार में भोलेपन का उपहार लेकर आए हैं, लेकिन धीरे-धीरे जैसे हम अधिक बुद्धिमान होते गए। हमारा भोलापन समाप्त होता गया। हम शांति के साथ पैदा हुए पर जैसे-जैसे बड़े हुए, अपनी शांति खो दी और हम शब्दों से भर गए। हम हृदय से जीते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, हम हृदय से मस्तिष्क की ओर चले गए। इस यात्रा को विपरीत दिशा में ले जाना ही दिव्यता है। यह अपने मस्तिष्क से हृदय की तरफ की यात्रा है। शब्दों से शांति की तरफ तथा हमारी बुद्धिमत्ता के साथ-साथ भोलेपन की तरफ वापसी है। यद्यपि यह बहुत सरल है, लेकिन यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।

परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करना और किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना दिव्यता है। सीमित दायरे के बाहर जाना और इस बात का अनुभव करना कि इस ब्रह्मांड में जो भी कुछ है, वह मेरा है, दिव्यता है। अदिव्यता को परिभाषित करना आसान है। मैं इस स्थान विशेष का हूं। यह कहकर अपने को सीमित करना। मैं इस संस्कृति का हूं या मैं इस धर्म का हूं, कहकर अपने को सीमित करना। यह उसी तरह है, जैसे बच्चे कहते हैं कि मेरे पिताजी तुम्हारे पिताजी से अच्छे हैं या मेरा खिलौना तुम्हारे खिलौने से अच्छा है। 

मेरा विचार है कि अधिकांश लोग अभी भी इसी मानसिक आयु से चिपके हुए हैं, जबकि खिलौने बदल चुके हैं। युवक कहते हैं कि मेरा देश तुम्हारे देश से अच्छा है या मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से अच्छा है. ईसाई कहेगा बाइबिल सत्य है, जबकि हिंदू कहेगा कि वेद सत्य है। मुसलमान कहेगा कुरान खुदा का अंतिम शब्द है। किसी वस्तु को हम केवल इसलिए महिमामयी बताते हैं क्योंकि हम उस संस्कृति के हैं, इसलिए नहीं कि वह क्या है। यदि कोई व्यक्ति उन सभी चीजों की जिम्मेदारी ले सके, जो युगों-युगों से है और यह अनुभव करे कि यह सब मेरा है, तब यह परिपक्वता है। यह मेरी संपत्ति है, क्योंकि मैं ईश्वर का हंू। कोई व्यक्ति पूरे ब्रह्मांड का ज्ञाता हो सकता है और कह सकता है कि जितने भी सुंदर फूल हैं, सब मेरे उपवन के हैं।

प्रकृति का संगीत हमारे अंदर से प्रवाहित होता है
मानव का संपूर्ण विकास 'कुछ होने से 'कुछ न होने की तरफ तथा 'कुछ भी न होने से 'सबका होने का है। दिव्यता, भोलेपन और बुद्धिमत्ता का एक दुर्लभ संगम है। शांत रहते हुए उसी समय अपने को व्यक्त करने के लिए शब्दों की क्षमता रखना। उस समय मन पूर्ण रूपेण वर्तमान क्षण में होता है। जो भी आवश्यक है उसका तुम्हें एक प्राकृतिक और अविरल रूप में ज्ञान दिया जाता है, बस तुम शांत रूप से बैठो और प्रकृति का संगीत तुम्हारे अंदर से प्रवाहित होता है।

दिव्यता एक हंसी-खेल की तरह है। यह उसी समुद्र की मछली की तरह है, जो समुद्र की खोज कर रही है। दिव्यता हमारी आत्मा के केंद्र में है, अपनी आत्मा के अंदर जाने और वहां से अपना जीवन जीने की तरह से है। वह अपने मस्तिष्क से हृदय की तरफ की यात्रा है।

श्री श्री रविशंकर जी

एक बार सागर की मछलियों का सम्मेलन हुआ। वे वहां इसलिए एकत्रित हुई थीं कि इस बात पर विचार-विमर्श कर सकें कि उनमें से किसने सागर को देखा है। उनमें से कोई भी यह नहीं कह सकी कि वास्तव में उसने सागर को देखा था। तब एक मछली ने कहा, 'मेरे विचार से मेरे परदादा ने समुद्र देखा था। दूसरी मछली ने कहा, 'हां मैंने भी इसके बारे में सुना है। तीसरी मछली बोली, 'हां वास्तव में उसके परदादा ने सागर देखा था। फिर उन्होंने एक बड़ा सा मंदिर बनाया और उस मछली के परदादा की एक मूर्ति स्थापित की। सबने कहा, 'इन्होंने सागर देखा था. वे सागर से जुड़े हुए थे।

ठीक यही बात उन लोगों के साथ भी है, जो साधना के पथ पर चल रहे हैं और दिव्यता को जानने के लिए उत्सुक हैं। दिव्यता क्या है? दिव्यता एक हंसी-खेल की तरह है। यह उसी समुद्र की मछली की तरह है, जो समुद्र की खोज कर रही है। दिव्यता हमारी आत्मा के केंद्र में है, अपनी आत्मा के अंदर जाने और वहां से अपना जीवन जीने की तरह से है। हम सभी इस संसार में भोलेपन का उपहार लेकर आए हैं, लेकिन धीरे-धीरे जैसे हम अधिक बुद्धिमान होते गए। हमारा भोलापन समाप्त होता गया। हम शांति के साथ पैदा हुए पर जैसे-जैसे बड़े हुए, अपनी शांति खो दी और हम शब्दों से भर गए। हम हृदय से जीते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, हम हृदय से मस्तिष्क की ओर चले गए। इस यात्रा को विपरीत दिशा में ले जाना ही दिव्यता है। यह अपने मस्तिष्क से हृदय की तरफ की यात्रा है। शब्दों से शांति की तरफ तथा हमारी बुद्धिमत्ता के साथ-साथ भोलेपन की तरफ वापसी है। यद्यपि यह बहुत सरल है, लेकिन यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।

परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करना और किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना दिव्यता है। सीमित दायरे के बाहर जाना और इस बात का अनुभव करना कि इस ब्रह्मांड में जो भी कुछ है, वह मेरा है, दिव्यता है। अदिव्यता को परिभाषित करना आसान है। मैं इस स्थान विशेष का हूं। यह कहकर अपने को सीमित करना। मैं इस संस्कृति का हूं या मैं इस धर्म का हूं, कहकर अपने को सीमित करना। यह उसी तरह है, जैसे बच्चे कहते हैं कि मेरे पिताजी तुम्हारे पिताजी से अच्छे हैं या मेरा खिलौना तुम्हारे खिलौने से अच्छा है। 

मेरा विचार है कि अधिकांश लोग अभी भी इसी मानसिक आयु से चिपके हुए हैं, जबकि खिलौने बदल चुके हैं। युवक कहते हैं कि मेरा देश तुम्हारे देश से अच्छा है या मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से अच्छा है. ईसाई कहेगा बाइबिल सत्य है, जबकि हिंदू कहेगा कि वेद सत्य है। मुसलमान कहेगा कुरान खुदा का अंतिम शब्द है। किसी वस्तु को हम केवल इसलिए महिमामयी बताते हैं क्योंकि हम उस संस्कृति के हैं, इसलिए नहीं कि वह क्या है। यदि कोई व्यक्ति उन सभी चीजों की जिम्मेदारी ले सके, जो युगों-युगों से है और यह अनुभव करे कि यह सब मेरा है, तब यह परिपक्वता है। यह मेरी संपत्ति है, क्योंकि मैं ईश्वर का हंू। कोई व्यक्ति पूरे ब्रह्मांड का ज्ञाता हो सकता है और कह सकता है कि जितने भी सुंदर फूल हैं, सब मेरे उपवन के हैं।

प्रकृति का संगीत हमारे अंदर से प्रवाहित होता है

मानव का संपूर्ण विकास 'कुछ होने से 'कुछ न होने की तरफ तथा 'कुछ भी न होने से 'सबका होने का है। दिव्यता, भोलेपन और बुद्धिमत्ता का एक दुर्लभ संगम है। शांत रहते हुए उसी समय अपने को व्यक्त करने के लिए शब्दों की क्षमता रखना। उस समय मन पूर्ण रूपेण वर्तमान क्षण में होता है। जो भी आवश्यक है उसका तुम्हें एक प्राकृतिक और अविरल रूप में ज्ञान दिया जाता है, बस तुम शांत रूप से बैठो और प्रकृति का संगीत तुम्हारे अंदर से प्रवाहित होता है।

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