LUCKNOW: यूपी विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत पाने वाली भारतीय जनता पार्टी की जीत का मजमून कुछ दिन पहले ही तय हो गया था। चुनाव की आहट के साथ ही यह भी माना जाने लगा कि यूपी और उत्तराखंड के चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का पैमाना भी तय कर देंगे। साथ ही भाजपा के राष्ट्रवाद के नये फार्मूले की सफलता का पता भी लग जाएगा। चुनाव से तीन माह पहले सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी से फिर सियासी समीकरण बदलने लगे और विपक्ष इन दोनों को मोदी सरकार की विफलताओं के रूप में जनता के सामने लेकर गया लेकिन उनका यह दांव उल्टा पड़ गया और यूपी में भाजपा के राष्ट्रवाद और नोटबंदी के बाद अमीर-गरीब के बीच की लड़ाई का फायदा उसे मिला।
यूपी में कायम है मोदी मैजिक
चुनाव नतीजों से यह भी साफ हो गया कि यूपी में मोदी लहर अभी खत्म नहीं हुई है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भाजपा द्वारा राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाने और नोटबंदी से गरीबों का दिल जीतने की रणनीति पूरी तरह कामयाब रही। यह भी साबित हो गया कि आम जनता ने केंद्र सरकार के करीब ढाई साल के कार्यकाल को पूरे नंबर दिए हैं लिहाजा मोदी के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी जैसा कोई फैक्टर नहीं था। हालांकि लोकसभा चुनाव में करीब 42 फीसदी वोट के साथ 73 सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा के लिए विधानसभा चुनाव की राह आसान नहीं थी। खासकर यूपी में सपा और बसपा के मजबूत जातिगत वोट बैंक और पश्चिम उप्र में रालोद पर जाट वोट बैंक का भरोसा उसके आड़े आ रहा था। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की स्वच्छ छवि भी भाजपा के रास्ते में बड़ी रुकावट थी लिहाजा भाजपा ने मुख्यमंत्री का कोई चेहरा न देकर पीएम मोदी के नाम पर भी चुनाव लडऩे की रणनीति बनाई। वहीं प्रत्याशियों के ऐलान में भी जानबूझकर देरी की गयी ताकि जनता के दिमाग में पूरी तरह पीएम मोदी का चेहरा और कमल का फूल चुनाव निशान ही छाया रहे। लोकसभा चुनाव की तर्ज पर प्रत्याशी चाहे जो हो, जनता से मोदी के नाम पर ही वोट मांगा गया।
ध्रुवीकरण और नोटबंदी सबसे अहम
बसपा ने चुनाव से पहले 97 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश की जो भाजपा के लिए मुफीद साबित हुई। इसका फायदा यह हुआ कि मुस्लिम वोट बैंक तो बसपा और सपा में बंट गया लेकिन भाजपा को हिंदू वोट बैंक पूरी तरह अपने पाले में करने में कामयाबी मिल गयी। बताना मौजू है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का दलित वोट भी इसी तरह अचानक हिंदू वोट बैंक में तब्दील होकर भाजपा के खाते में चला गया था। वोट बैंक का जाना किसी भी पार्टी के लिए सबसे बुरी स्थिति होती है। याद रहे कि 1996 के विधानसभा चुनाव में 56 विधायकों के साथ कांग्रेस ने बसपा के साथ गठबंधन करने का फैसला लिया था नतीजतन उसका दलित वोट बैंक समय के साथ बसपा के पाले में चला गया जो वापस नहीं आया। यही वोट बैंक 2014 के चुनाव में बसपा से भाजपा के पाले में शिफ्ट हुआ जो हालिया विधानसभा चुनाव तक बरकरार है। कुछ ऐसा ही हाल सपा का गढ़ माने जाने वाली सीटों पर भी देखने को मिला जहां रार के बाद असंतुष्ट नेताओं ने बसपा को वोट देने की अपील तो की लेकिन यादव वोट बैंक ने बसपा के मुकाबले भाजपा पर भरोसा कर उसके पक्ष में मतदान कर दिया।
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पश्चिम से लेकर पूरब तक दिखा असर
वोटों के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का असर पश्चिमी उप्र से लेकर पूर्वी उप्र तक नजर आया है। पश्चिमी उप्र की जनता मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर, मेरठ आदि शहरों में हुए दंगों को भुला नहीं सकी। मुरादाबाद समेत कई पश्चिमी यूपी के जिलों में मंदिरों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर बजने के बाद विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे थे। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद धार्मिक स्थलों पर मोटरसाइकिल सवार नकाबपोश अराजक तत्वों का गैंग माहौल को बिगाड़ता रहा और सरकार इस पर काबू नहीं पा सकी। पश्चिमी उप्र से उपजी यह लहर पूर्वी उप्र तक चली गयी। पीएम मोदी ने पांचवें चरण के चुनाव प्रचार के बाद श्मशान और कब्रिस्तान का मुद्दा उठाकर इसे धार दे दी। यूपी में चल रहे पशुओं के अवैध बूचड़खाने को भले ही बाकी पार्टियों ने मुद्दा नहीं माना लेकिन भाजपा इसे पूरी तरह भुनाने में कामयाब रही। कहना गलत न होगा कि यूपी में भाजपा की जीत के साथ राजनीति के नये युग की शुरुआत हो चुकी है। जातिगत वोट बैंक के आधार पर चुनाव में जाने वाले राजनैतिक दलों को अब अपनी रणनीति बदलनी होगी और उन्हें भी ऐसे मुद्दे तलाशने होंगे जो उनकी राजनीति को जिंदा रख सकें।
Story by: ashok.mishra@inext.co.in
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