आगरा(ब्यूरो)। मरीज को अजीब आवाजें सुनाई देती हैं। उसे ऐसी चीजें दिखाई देती हैं जो वास्तव में होती ही नहीं हैं। इस स्थिति में वह हमेशा खुद को असुरक्षित महसूस करता है और एक समय के बाद डिप्रेशन के चलते शून्य में चला जाता है। यह कहना है एसएन मेडिकल कॉलेज में मनोरोग विभाग के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ। विशाल सिन्हां का।

महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक शिकार
डॉ। विशाल सिन्हा ने बताया कि आबादी के करीब एक प्रतिशत लोग अपने जीवन काल के दौरान सिजोफ्रेनिया का शिकार हो सकते हैं। महिलाओं की तुलना में यह पुरुषों में अधिक होता है। आसान भाषा में कहें तो इस डिजीज के संपर्क में आने से मरीज अपनी अलग इमेजनरी दुनिया बना लेते हैं। ऐसे में मरीज खुद से ही बात करता है और उस इमेजनरी दुनिया में वह खुद का करेक्टर फिक्स कर लेता है। वह खुद से बातें करके खुद को ही समझाता है। वह सेल्फ ड्रिवेन पर्सनेलिटी से ही सही और गलत के डिसीजन भी एसपेक्ट करता है।

किशोरों के साथ युवा भी सिजोफ्रेनिया का शिकार
मनोरोग विशेषज्ञों के मुताबिक सिजोफ्रे निया एक ऐसा मेंटल डिसऑर्डर है, जिसकी संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। इस बीमारी में इंसानों को डिलूशनल और हेलुशनल दोनों ही होने लगते हैैं। ऐसे में मरीज अपनी ही दुनिया में रहता है वह रियलिटी को भूल जाता है। पर्सन हेलूसिनेट करने लगता है कि लोग उसके बारे में बात कर रहे हैैं। उस परसन को आवाजें सुनाई देने लगती हैं। इसकी वजह से उस परसन की सोचने-समझने की क्षमता पर काफी असर पड़ता है। इस बीमारी से ज्यादातर युवा वर्ग ही परेशान हो रहा है। 10 से 40 साल तक के बच्चों और युवाओं में इस तरह के लक्षण पाए जाते हैं।

इनीशियल स्टेज में नहीं आता है समझ
सिजोफ्रे निया को प्रॉपर मेडिटेशन से भी दूर भी किया जा सकता है लेकिन इनीशियल स्टेज में यह प्रॉब्लम समझ नहीं आती है, धीरे-धीरे लोग इसके आदी हो जाते हैैं और यह प्रॉब्लम अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाती है। जब तक पेरेंट्स को इस बीमारी के बारे में पता चलता है तब तक ये बीमारी पूरी तरह मरीज को अपनी चपेट में ले चुकी होती है।

नहीं समझते दूसरों की बातें
स्पेशलिस्ट के अनुसार सिजोफे्र निया कई वजहों से लोगों को हो सकती है। आज के टाइम में सभी लोग खुद में ही इतने बिजी हो गए हैं कि उन्हें दूसरों की बातें सुनने और समझने का समय ही नहीं है। कई बार लोग अपने अंदर की बातें शेयर नहीं कर पाते हैैं और खुद को सभी लोगों के बीच होकर भी अकेला पाते हैैं। ऐसे में अपने आप को इमोशनल सपोर्ट देने के लिए ऐसे पर्सन इमेजनरी दुनिया बना लेते हैैं।

जेनिटिक लक्षण
- कई लोगों को यह समस्या जेनिटिक डिसऑर्डर की वजह से होता है। न्यूरोन का इमबैलेंस
- मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीर यानी की डोपामाइन, सेरोटोनिन नाम के कुछ न्यूरॉन इम्बैलेंस हो जाते हैैं। इस वजह से प्रॉब्लम पैदा होती हैै।

योग थैरेपी बीमारी में कारगर
आगरा कॉलेज आगरा की मनोवैज्ञानिक डॉ। रचना सिंह ने बताया कि सिजोफे्र निया एक गंभीर बीमारी है। बिहेवियर और कॉगनेटिव बिहेवियर थैरेपी के जरिए इस बीमारी को ठीक किया जा सकता है, लेकिन इसमें पर्सन को रेगुलर मेडिटेशन करते रहना चाहिए। इसके अलावा योग थैरेपी के जरिए भी इस प्रॉब्लम को दूर किया जा सकता है।

सिजोफे्र निया के कारण
-ओवर स्ट्रेस, भ्रमित और डिप्रेशन में रहना
-अकेले रहना अच्छा लगना, बिहेवियर चेंज महसूस होना
-दिन भर खुद में बातें करना, आवाजें सुनाई देना
-इमेजनरी पर्सन को साथ में महसूस करना
-इमोशन लैस हो जाना, ऐसी जो हैै ही नहीं, उसे इमेजिन करना,
-बड़ी-बड़ी बातें करना, खानपान, रहन-सहन का ध्यान न रखना

सिजोफ्रे निया पर लिखी बुक्स
- थ्राइव विद सिजोफ्रे निया, द क्लिफ ऑफ सिजोफे्र निया, वड्र्स ऑन बाथरूम वॉल, द सेंटर कैन नॉट होल्ड, माई जर्नी थ्रू मेडनेस, मी, माईसेल्फ एंड दैम

ये हैैं बनी हैं मूवीज
- कार्तिक कॉलिंग कार्तिक, अ ब्यूटीफुल माइंड, सेवेज ग्रेस, बैनी एंड जून समेत अन्य।

सिजोफ्रेनिया एक प्रकार की मानसिक बीमारी है। इस बीमारी से पीडि़त व्यक्ति सोचने-समझने की क्षमता कम हो जाती है। पीडि़त व्यक्ति वास्तविकता से दूर चला जाता है। ऐसे में उस व्यक्ति को अजीब सी आवाजें सुनाई देती हैं। इस तरह की बीमारी से ग्रस्त मरीजों का इलाज किया जाता है।
- डॉ। विशाल सिन्हा, एसओडी मनोरोग विभाग, एसएन मेडिकल कॉलेज

मेंटल हॉस्पिटल में आए दिन इस तरह के पेशेंट्स आते हैं। इनमें सबसे ज्यादा ऑडिटरी हेलुसिनेशन के पेशेंट्स होते हैैं जो चीजें इमेजिन करने लगते हंै। ऐसे में पेशेंट्स को प्रॉपर ट्रीटमेंट और अटेंशन की जरूरत होती है साथ ही उन्हें इमोशनल सपोर्ट भी मिलना चाहिए।
डॉ। पूनम तिवारी, मनोवैज्ञानिक, आरबीएस कॉलेज

इनीशियल स्टेज में यह प्रॉब्लम समझ नहीं आती है और धीरे-धीरे लोग इसके आदी हो जाते हैैं। अगर प्रोपर मरीज को इलाज मिले तो बहुत हद तक पेशेंट ठीक हो सकता है। मेडिटेशन और योग भी कारगर है।
- डॉ। रचना सिंह, मनोवैज्ञानिक, आगरा कॉलेज आगरा