प्रयागराज ब्यूरो । पर साढे चार बजे लोकमान्य तिलक (ट) मुंबई ट्रेन आकर रुकी। इन ट्रेनों के खिड़कियों को चेक किया गया तो स्लीपर व जनरल कोच के ज्यादातर खिड़कियों में खामियां मिली। हर दूसरी खिड़की पूरी तरह से बंद नहीं हो पा रही थी। कोई खिड़की आधी बंद हो रही थी तो कुछ नीचे तक आकर रुक जाती। इस कोच में बैठे जगत बहादुर नाम के यात्री ने बताया कि जैसे-जैसे ट्रेन की रफ्तार तेज होती। ठंड हवाओं का प्रकोप भी तेज हो जाता। ठंड हवाओं से बचने के लिए ट्रेन चलने पर शॉल व चादर तक लगाना पड़ता है। फिर भी हवा पास हो जाती है। अपनी सीट छोड़कर मजबूरन दूसरे की सीट के बगल में बैठना पड़ता है। दिन का सफर तो कट जाता है लेकिन रात का सफर नहीं कट पाता है।

रखना पड़ता है बैग
तुलसी एक्सप्रेस ट्रेन में सफर कर रहे यात्री सोनू बताते है कि ठंड हवा अंदर आने पर दूसरे के सीट का सहारा लेना पड़ता है। दिन का समय तो कट जाता है। मगर रात में सफर कटना मुश्किल हो जाता है। सर्द हवा से बचने के लिए खिड़की आधा-अधूरा बंद कर सामान वाला बैग रखना पड़ता है। जबकि यात्री रेलवे को पूरा किराया देता है। सुविधाएं सिर्फ एसी कोचों में रहती है। स्लीपर व जनरल कोच की तरफ कोई नहीं ध्यान देता है। खिड़की का एक हिस्सा टूटा हुआ है। जहां पर लकड़ी की प्लाई लगाई गई है। फिर भी हवा अंदर पास होती है। यह प्लाई भी जुगाड़ से लगाया गया है। अच्छे तरीके से फिटिंग नहीं की गई है। शिकायत पर भी कोई सुनने वाला नहीं है। ज्यादातर खिड़की की कुंडी बंद नहीं हो पाती है।

खिड़की बंद करने के चक्कर में दबी उंगली
इस ट्रेन में सफर कर रहे यात्री अजय कुमार बताते है कि ट्रेन की खिड़की आधा भी बंद नहीं हो पा रही थी। रेलवे स्टाफ ने दम लगाकर बंद करने को कहा। जिसपर उन्होंने तेजी से प्रेशर लगाकर बंद करने की कोशिश की तो उंगली दब गई। लेकिन खिड़की पूरी तरह से बंद नहीं हो पाई। उनके पत्नी व डेढ साल का बच्चा होने के चलते प्रयागराज जंक्शन पर ट्रेन के पहुंचते ही सीट बदलने के लिए टीटी से गुहार लगाते रहे। अंत में उन्हें अपनी ही सीट पर बैठकर सफर करना पड़ा। उनका कहना है कि अगर साथ में कंबल न होता तो शायद सफर और कठिन और सर्द भरा होता।

ट्रेनों के शीशे, चार्जिंग बोर्ड, डोर, सीट, नल व अन्य चीजों को बराबर चेक किया जाता है। अगर कही कोई कमी मिलती है तो फौरन दूर किया जाता है। यात्रियों को बेहतर सुविधाएं देने के लिए रेलवे का प्रयास रहता है।
हिमांशु शेखर उपाध्याय, सीपीआरओ प्रयागराज