बरेली (ब्यूरो)। घर में कोई भी समारोह हो और उसमें संगीत न हो तो वह आयोजन अधूरा माना जाता है। इन सब में बात जब विवाह समारोह की हो तो वहां तो बिना संगीत के किसी भी रस्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आज के समय में म्यूजिक के लिए डीजे सिस्टम आदि साधनों का यूज किया जाता है, लेकिन पहले के समय इसका दारोमदार एक खास किस्म के लोगों पर हुआ करता था, जिन्हें मिरासी कहा जाता था। इस मिरासी समुदाय की महिलाएं विवाह समारोह में घरों में जाकर रस्म के अनुसार गीत गाया करती थीं, जिसके बदले में उनकी कोई मांग भी नहीं हुआ करती थी। घर का मुखिया जो भी उन्हें खुशी से दे देता था, वे उस को ही लेकर हंसी-खुशी बहुत सारी दुआएं देकर वहां से विदा हो जाती थीं।

यूं बदला क्रेज
साहित्यकार लवलेश ने बताया कि पहले के टाइम में शादी समारोह में इन मिरासिनों को बुलाया जाता था। समय के साथ काफी बदलाव हुआ है। अब इन लोगों के मिजाज व रहन सहन भी बदल गए है। इन लोगों ने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर जॉब में आगे बढय़ा है। अधिकतर लोग आजकल जॉब को करने की सोचते हैं। इस दौरान भी मिरासिन गाने का क्रेज कम हुआ। पहले जब किसी शादी समारोह में से महिलाएं आती थीं तो माहौल की रौनक बढ़ जाती थी।

नहीं होती थी कोई डिमांड
सुरेंद्र मोहन ने बताया कि पार्टी विवाह समारोह जो मिरासिन आती थीं। उनकी कोई डिमांड नहीं होती थी। ये लोग ग्रुप बनाकर आती थीं और अपने साथ गाने-बजाने का समान लेकर आती थीं। इस दौरान वे गाने-बजाने का कोई चार्ज नहीं लेती थीं। घरों के सभी सदस्य जो भी न्यौछावर करते थे, वे उसे ही सहर्ष स्वीकार कर लेती थीं। अधिकतर रजवाड़े के लोग इन को बुलाते थे। किसी के घर पर शादी या कोई बेबी होता था तो इस अवसर पर कई दिन पहले से इन लोगों को बुला लिया जाता था।

क्या हैं मिरासी
दिल्ली के मिरासी चारणों के वंशज होने का दावा करते हैं। कहा जाता है कि प्रारंभिक मुगल शासन के दौरान चारणों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था। वे अमीर खुसरो से भी जुड़े थे। यह लोग संगीतमय प्रदर्शन किया करते थे। महिला मिरासी कलाकारों को मिरासान के नाम से भी जाना जाता था। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के दौरान पंजाब के मिरासी सिख साम्राज्य के संरक्षण में थे। उन्होंने वंशानुगत भाटों, वंशावलिज्ञों और संगीतकारों के रूप में काम किया। उन्होंने उस अवधि में सूफी स्थानों पर लोकसंगीत, कव्वाली, गुरबानी आदि का मेलों में प्रदर्शन किया। पारंपरिक विद्या, जैसे कि भैरवी राग में हीर रांझा का संगीतमय प्रदर्शन भी उनके द्वारा किया जाता रहा।

मंत्रमुग्ध हो जाते थे लोग
रागदारी को पंजाबी मिरासी द्वारा विकसित और नियोजित किया गया था। भले ही उनके पास इसका सटीक तकनीकी ज्ञान नहीं था, लेकिन इसके बाद भी जब वे अपने सुरों को छेड़ते थे तो लोग मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह पाते थे। उन परिवारों की महिलाओं को मिरासन के नाम से जाना जाता था। वे अस्पष्ट रागों का इस्तेमाल करती थीं। मिरासी ने जटिल इंडिक संगीत विधाओं और मीटर्स का प्रयोग किया, जैसे कॉम्प्लेक्स मींड, गमक और क्विक सिल्वर खटका। चूंकि उनके पास इंडिक संगीत परंपरा में कोई विशिष्ट शिक्षा नहीं थी, इसलिए उन्होंने इन जटिल मीटर्स और विधाओं को संदर्भित करने के लिए बोलचाल की भाषा का उपयोग किया, जैसे कि इसे मच्छी मारकटान भी उनके द्वारा कहा जाता था।

परंपरा का तिरस्कार
पंजाब के ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल होने के बाद नए यूरोपीय औपनिवेशिक अधिपतियों ने संगीत प्रदर्शन की मिरासी परंपरा का तिरस्कार किया। वे इसकी तुलना बदसूरत, चीखने-चिल्लाने वाली, गंदी, बदनाम और लालची शब्दों से करने लगे थे। उपनिवेशों द्वारा लाए गए विक्टोरियन नैतिकतावाद ने मिरासी परंपरा को नष्ट करना और बदनाम करना शुरू कर दिया, जिसमें एक नए, अंग्रेजीकृत भारतीय अभिजात्य वर्ग ने मिरासी के बारे में अपने विचारों में अपने ब्रिटिश अधिपतियों का पक्ष लिया। इस प्रकार नौच-विरोधी सुधारों की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य मिरासी-शिष्टाचार संस्कृति को समाप्त करना था। पंजाब के संगीत को आर्य समाज और देव समाज जैसे समूहों द्वारा शुद्ध करने का प्रयास किया गया था। पटियाला और कपूरथला की रियासतों ने अभी भी इन पारंपरिक कलाकारों को संरक्षण दिया, जिससे उनकी परंपराओं को समाप्त होने में मदद मिली।

धीरे-धीरे कम हुआ क्रेज
पंजाबी में गायक को मिरासी कहते थे। मिरासी प्रथा सनातनी परंपरा थी। घर में उत्सव आदि होने इस समुदाय की महिलाएं नाचने, गाने और बजाने जाती थीं। आठ से दस औरतों की मंडली आती थी और गाकर चली जाती थी। धीरे-धीरे इनका क्रेज कम हो गया। अब खुद ही लोग डीजे पर डांस कर लेते हैं।
-मोना प्रधान, साहित्यकार

आमतौर पर मिरासी समुदाय के लोग गाने-बजाने से ताल्लुक रखने वाले माने जाते हैं। इस समुदाय के लोग पारंपरिक गायक और नर्तक होते हैं। पहले रजवाड़ों और जमींदार परिवारों में शादी ब्याह के अवसरों पर इन्हें बुलाया जाता था। इनकी आजीविका संगीत, नृत्य, और गाने बजाने से ही चलती थी। उनका पारंपरिक पेशा शादियों में गाना और ढोल बजाना ही होता था।
-सिया सचदेव, साहित्यकार

पहले के जमाने में जिन लोगों के घर में शादी होती थी, वे मिरासिनों को बुलाते थे। शादी के कुछ दिन पहले ही वे लोग ढोलक आदि के साथ आने लगती थीं। समय के साथ काफी बदलाव आ गया है। आज के दौर में न वे गाने वाले हैं, न ही कोई उनसे गवाना चाहता है। अब ये लोग भी पढ़ाई करके जॉब करने की सोचते हैं, इसलिए भी अब ये परंपरा लुप्त हो चुकी है। ।
-विधान टंडन

जिस भी घर में बड़ा उत्सव या विवाह समारोह होता था तो इस दौरान मिरासिन को बुलाया जाता था। मेरे घर में 20 साल पहले भतीजा हुआ था। इस दौरान मिरासिन बुलाई गई थीं। वे एक ग्रुप के साथ आती थीं और ढोलक-मजीरा साथ में लाती थी और गाती बजाती थीं। इन लोगों की कोई डिमांड भी नहीं होती थी। घर वाले जो न्यौछावर करते थे, बस वही पैसे लेती थीं।
-सुरेंद्र मोहन